Saturday, May 24, 2025

आत्म दीपो भव:~ बुद्ध

 अब के दशक में सोशल मीडिया हमारा वो प्रदर्शनी बन चुका है जहां पर हम अधिकांशतः अपने उन एस्पेक्ट्स को दिखाते हैं जो हमारे जीवन का सबसे उज्ज्वल होता है, या कुछ मायनों में हम अपने असलियत को छुपाते हुए  खुद को खुश इत्यादि दिखाने का प्रयास कर रहे होते हैं।

 अब ऐसे में जो दर्शकगण हैं उनपर यह निर्भर करता है कि वो कितना अपने ज्ञानेंद्रियों का इस्तेमाल करते हैं और कितना अपने समझ का। 

यकीन मानें चाहे कितनी भी खूबसूरत नायिका हों उनकी सौंदर्य को जीवित रखने के लिए चुकाई गई कीमत हम समझ नहीं पाते कुछ क्षण को हमें लगता है कि सिर्फ़ हम ही हैं वो जो परेशानी में हैं और बाकी दुनिया तो हसीन है। क्या आप जानते हैं या ध्यान रख पाते हैं कि बहुत सारी नायिकाएं पता नहीं कितने साल तक तो मनपसंद व्यंजन नहीं खा पाती हैं डाइटिंग के चक्कर में, दर्जनों ऑपरेशन हो सकता है उनके नाक नक्श को ठीक दिखाने के लिए जोकि वास्तव में काफी पीड़ादायक भी होता है। लता मंगेश्कर जी को एक बार पूछा गया कि आप दुबारा जिंदगी चाहते हैं? तो उन्होंने कहा कि जरूर, मगर मैं दुबारा लता मंगेशकर नहीं बनना चाहती क्योंकि लता मंगेशकर की तकलीफें सिर्फ मैं ही जानती हूँ।

जब भी हमें तथाकथित या अपने कसोटी पर किन्हीं सफल लोगों को देखते हैं तो हम पर निर्भर करता है कि हम सिर्फ़ आंख का इस्तेमाल करें या दिमाग का भी, क्योंकि रील देखने की गंदी लत ने हमें सोचने देने का समय खींचlलिया है और ये बढ़ भी  रहा है हम इम्पेशेंट होकर सिर्फ़ अपने ज्ञानेंद्रियों पर शिफ्ट होते चले जा रहे हैं और इसी का नतीजा है कि हमें आए दिन यह लगते रहता है कि दुनिया हरी भरी है और हम रेगिस्तान में हैं। यकीन मानिए ऐसा नहीं है। सब अपने अपने जीवन में अपने हिस्से का कीमत चुका कर आगे बढ़ रहे हैं। और उनमें भी जो वास्तविक हैं उनका कुछ ठीक भी पर जो बनावटी हैं उनका तो छोड़ ही दीजिए और विश्वास कीजिए आज के इस सोशल मीडिया प्रदर्शनी में अधिकांश दर्शन बनावटी ही है। ध्यान रखें कि सबसे अधिक मेगा पिक्सल का भी फोटो को झूम करने पर धुंधला या फटा फटा सा दिखता है। Come closer to know well. ज्ञान का प्रकाश ही अंधकार को दूर कर सकता है, जहां अंधकार है वहां दिया जलाएं। आत्म दीपो भवः।

निकलती हुई जिंदगी।

 कभी स्टैंड में खड़ी हुई बस या स्टेशन पर खड़ी रेल के खचाखच भरे डिब्बे में बैठकर या खड़ा होके इस बात का इंतजार तो आप जरूर किए होंगे कि गाड़ी आगे बढ़ेगी वायुमंडल में हलचल  होगी और इस कसमसाती भीड़ में भी हवा आएगी । 

जानते हैं जब गाड़ी खुलती है उसके बाद क्या होता है? गाड़ी खुलने के साथ बहुत सारी चीजें खुलती हैं। पहिए बढ़ते हैं, आप अपने मंजिल की ओर थोड़ा सा आगे बढ़ते हैं। यह निश्चित हो जाता है कि आप स्थिर नहीं रहे है विराम से चलायमान हो गए हैं। कोई पड़ोस की चाची अब इस बात से आश्वस्त नहीं होती हैं कि लड़का यहीं है। उसके कहीं जाने की बात होती है। उसी बस या रेल के पड़ाव पर जब नए यात्री पूछते हैं तो उनको उत्तर मिलता है कि फलाना गाड़ी इतने बजे ही खुल गई फलाना जगह जाने के लिए। गाड़ी खुलने के साथ ही प्रकृति में हलचल हो जाती है न्यूटन का प्रथम नियम यानी जड़त्व से आगे बढ़ते हीं खुद को स्पष्ट करते हैं कि फलाना समय तक हम वहां होंग । उमस भरी भीड़ और ऑक्सीजन के निम्न स्तर के संघर्ष के बीच हम थोड़ा सह लेते हैं थोड़ा खुश हो लेते हैं और नए तस्वीरों के रेल को अपनी आंखों के लेंस से गुजारते हुए उन लम्हों को जीने लगते हैं, उसके जुड़ते जाते हैं, उसी में नवीनता और खुशी खोजने लगते हैं। और कभी कभी उस यात्रा में इस कदर खो जाते हैं अचानक ही कोई आवाज सुनाई पड़ती है कि हमारे उतरने का समय आ चुका है। और जिस उमस से हम शुरुआत में परेशान हो रहे थे, लगता है कि इतनी जल्दी बीत गया। थोड़ा और रहना चहिए था। और जिस तरह हम नई यात्रा के पूर्व विरामावस्था में थे और उमस वाली भीड़ से व्याकुल हो रहे थे वही व्याकुलता उस गाड़ी को छोड़ते वक्त भी आ जाती है। 

कला के तिल


जब कभी आप किसी कला का रसास्वादन कर रहे हों जैसे, यदि आप कोई वाक्य पढ़ रहे हों, कोई गीत सुन रहे हों, कोई चित्र देख रहे हों, अभिनय देख रहे हों, और अचानक से कोई चूक हो जाय और वो आपको दिख जाए तो आप उसपर हंसना नहीं। क्योंकि वर्तमान में किया गया वो प्रदर्शन है, जरा जरा सी हुई चूक उस कला के सजीवता और इंसान की अमशीनीकरण का परिचय दे रहा होगा। हरेक वो कला जो अपने आप में नवीन है वो शत प्रतिशत किसी सांचे की ढाल नहीं हो सकती और ना ही होनी चाहिए। हरेक कला स्वतंत्र होनी चाहिए। 

कलाकार कि एक छोटी सी चूक कला को जो सुंदरता प्रदान करती है ये देखने वाले कि दृष्टि ही दिखा सकती है। जिसे हम और आप संवेदनशीलता कहेंगे। उसके इस कच्चेपन की सजीवता शायद उस पल तो घबरा ही देती होगी और हृदय कुछ ज़्यादा रक्त प्रवाहित कर ही देता होगा । पर उस उसमें जो सुंदरता है वो भी बड़े कमाल की होती है। पर हां इसका यह कदापि अर्थ नहीं कि कला में जानबूझकर कोई कमी छोड़ी जाय ताकि वो सुंदर हो। कुछ हलंत विसर्ग छूट जाएं ये और बात है पर हर बार गलती नई और असामान्य हो और पूरी कलाकृति में एकाध हों तो ही ठीक लगती है। 

Sunday, April 20, 2025

एतबार की सुबह




पूरब की लाली निकलने से पहले जब आप अधकचि निंद्रा में बिना चप्पल पहने गांव की पुरानी अलंग पर निकल के खुली हवा का आलिंगन कर रहे हों और अचानक भक्क से एक बबूल का कांटा आके तलबे के में लग जाए तो आपका मुँह देखते रह जाएगा। होगा बस ये की आपका 50 किलो का शरीर को दूसरा पैर थाम लेगा और आप बिना 1सेकंड गंवाए उस कांटे से मुक्त होंगे। ठीक से नींद खुल गई और अब अपने चाल में थोड़ा अल्हड़पन आ गया धूल पर चलते चलते कभी कभी शीत से भींगी घास पर चलना बहुत सुखद जान पड़ता था। जब थोड़ा और आगे बढ़े तो कहीं कोसों दूर से एक ध्वनि सुनाई देती है। ये ध्वनि थी 48 घंटे के लिए निरंतर चलती हुई अखंड कीर्तन की जो पास के दो गांव बाद के गांव से आ रही थी। हेडफोन लगा कर मद्धिमतम आवाज में आपने कभी अगर राग मल्हार सुना हो, तो आप इस स्पर्श का अनुभव कर सकेंगे जो कीर्तन से आती जा रही थी। 
हरे रामाऽऽ हरे रामाऽऽ ...रामाऽऽरामाऽऽ हरेऽहरेऽ... हरे कृष्णा हरे कृष्णाऽऽ
कृष्णा कृष्णा हरे हरेऽऽ 
सुनते हुए यूं ही चले जाते थे कि पीछे से किसी ने आवाज दिया ऐऽऽ पवन रुक हमहू आ रेलियो हss , पीछे मुड़ा तो देखा दो महानुभाव मेरी ही तरह खाली पैर चले आते थे। रुक गया और पूछा कि और सब आ रेले है, प्रत्युत्तर मिला कि हां। आज एतबार था, तो स्कूल बंद था ओर ट्यूशन वाले मास्टरसाहब बारात गए थे तो साप्ताहिक टेस्ट भी कैंसिल था इसलिए विगत शाम के प्लान के हिसाब से सब क्रिकेट खेलने जा रहे थे। यूं तो मैं उतना अच्छा नहीं था खेलने में पर लोग रख लेते थे ताकि फील्डिंग हो जाए और दिल भी न टूटे अर्थात मंत्रिमंडल में राजमंत्री। अपनी अकुशलता महिमामंडित करना ठीक नहीं हमें क्रिकेट खेलने आना चाहिए था पर पता नहीं क्यों खेलने में रुचि होने के बाद भी हम उतना बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए । ऐसा नहीं की सिर्फ हम,कुछ और भी लोग थे मेरे जैसे। खेलते खेलते कब 11 बज गया भनक भी नहीं लगी किसी को। तो प्रश्न है कि पता कैसे चला कि 11 बज गया। हुआ कुछ यूं कि अचानक से खिलाड़ियों के संख्या से दो लोग अनुपस्थित हो गए सबने नजरे दौड़ाई तो देखा कि सोनू ओर मोनू आरी पर थे घर की ओर जाते हुए। थोड़ी और दूर देखा तो देखा कि लूंगी और गंजी पहने एक बाबा थे जो सोनू मोनू के बाबा थे,अब माजरा यह था कि ये दोनों उनको आते देखे तो घर जाना शुरू कर दिए। हमसब भी अब क्या खेलते, थोड़ा मोह भंग भी हुआ और ये डांट स्पष्ट सुनाई दिया कि 11 बजे तक तोहनी के खाली एही सब करे के हऊ रे, जा ह की न घरबा। 

Sunday, January 5, 2025

शनिवार: अंक ८

 दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है: मनमोहन सिंह 





यह उद्धरण इस तथ्य को दर्शाता है कि जब कोई विचार समय के अनुकूल होता है, तो उसे कोई शक्ति या बाधा रोक नहीं सकती।

1. बौद्ध धर्म का उदय (छठी शताब्दी ईसा पूर्व)

विचार: सामाजिक सुधार और अहिंसा पर आधारित जीवन।

समय का आगमन: वैदिक धर्म के कर्मकांड और जाति प्रथा से समाज में असंतोष था। बुद्ध के विचारों को व्यापक स्वीकार्यता मिली।

नतीजा: बौद्ध धर्म भारत से लेकर एशिया के बड़े हिस्से में फैल गया और करोड़ों लोगों की जीवन शैली को प्रभावित किया।

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2. मौर्य साम्राज्य की स्थापना (321 ईसा पूर्व)

विचार: एक सशक्त और संगठित साम्राज्य का निर्माण।

समय का आगमन: सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत को एकजुट नेतृत्व की आवश्यकता थी। चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य के विचार सफल हुए।

नतीजा: मौर्य साम्राज्य भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य बना।

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3. 1857 का विद्रोह

विचार: विदेशी शासन से मुक्ति।

समय का आगमन: ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों ने भारतीय समाज में असंतोष बढ़ा दिया था।

नतीजा: भले ही यह विद्रोह असफल रहा, लेकिन इसने भारत में स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी।


4. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1947)

विचार: स्वतंत्रता और स्वराज।

समय का आगमन: गांधीजी के नेतृत्व में सत्याग्रह, असहयोग और दांडी मार्च जैसे आंदोलनों ने जनजागृति पैदा की।

नतीजा: 15 अगस्त 1947 को भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की।

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5. हरित क्रांति (1960 का दशक)

विचार: कृषि में आत्मनिर्भरता।

समय का आगमन: भारत में खाद्यान्न संकट और बढ़ती जनसंख्या के कारण नई तकनीकों की आवश्यकता महसूस की गई।

नतीजा: भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना और भुखमरी पर नियंत्रण पाया गया।

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6. भारत का संविधान (1950)

विचार: एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समानता आधारित समाज।

समय का आगमन: स्वतंत्रता के बाद भारत को एक ऐसे संविधान की आवश्यकता थी जो सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे।

नतीजा: भारत में लोकतंत्र स्थापित किया गया 


7. परमाणु परीक्षण (1974 और 1998)

विचार: भारत को सामरिक रूप से सशक्त बनाना।

समय का आगमन: भारत की सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच आत्मनिर्भरता जरूरी थी।

नतीजा: भारत एक परमाणु शक्ति बना और वैश्विक स्तर पर सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरा।

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8. 1991 के आर्थिक सुधार

विचार: भारतीय अर्थव्यवस्था को उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) के माध्यम से खोलना।

समय का आगमन:

1980 के दशक के अंत तक भारत गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा था।विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका था, और देश को अपने सोने के भंडार को गिरवी रखना पड़ा।वैश्विक अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव हो रहे थे, और भारत को प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए अपने आर्थिक ढांचे को बदलना जरूरी था।

भारत एक तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बना।

नतीजा:

 आईटी और सेवा क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ।भारत वैश्विक बाजार में अपनी जगह बनाने में सफल रहा।

 करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला गया, और मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ।


9. डिजिटल इंडिया अभियान (2015)

विचार: तकनीकी सशक्तिकरण और डिजिटल क्रांति।

समय का आगमन: इंटरनेट और तकनीक के युग में भारत को डिजिटल रूप से सशक्त बनाना जरूरी था।

नतीजा: भारत आज डिजिटल सेवाओं और स्टार्टअप्स का केंद्र बन चुका है।

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इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि जब विचार और समय एक साथ आते हैं, तो उन्हें कोई भी ताकत रोक नहीं सकत

यह विचार प्रगति, परिवर्तन और नवाचार के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रतीक है। इसका अर्थ यह भी है कि जब परिस्थितियाँ विचार के समर्थन में होती हैं, तो वह विचार स्वयं ही एक आंदोलन का रूप ले लेता है और दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है।

व्यावहारिक उपयोग: यह विचार व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर प्रेरणा देता है। जब किसी व्यक्ति का लक्ष्य और प्रयास समय के साथ मेल खाता है, तो सफलता निश्चित होती है।

Monday, September 2, 2024

शनिवार: अंक ७

 






आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता है जिसकी हरेक कृति सुखदायक होती जाती है। 


कबीरदास जी कहते हैं की ~

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥


पर दृश्य यह है आज की सुख तो सुख है कई दफा हम दुख में भी अपने धर्म और धार्मिकता को छोड़ कर पश्चिमी संस्कृतियों के नुस्खे सर्च करते हुए दिखते हैं। 


और विडंबना  देखिए कि जो पश्चिमी देश हैं, वह हमारी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं। आज मैथिली ठाकुर ब्रिटेन में सभा करती हैं। प्रेमानंद जी को लाखों विदेशी सुन रहे हैं। 

गीता दर्जनों देश पढ़ रही है। वहां आज आयुर्वेद , योग, गीता, रामचरितमानस इत्यादि ना जाने कितने भारतीय सभ्यताओं ओर संस्कृतियों को विदेशों में ले जाकर प्रसारित किया जा रहा है और हम अपने अपने घर की चीजों का कद्र करना भूलते जा रहे हैं। , 



सच ही कहा था कबीर दास जी ने की बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर, कैसे हम विश्व गुरु बनेंगे? खुद हम उसे चीज का पालन नहीं कर रहे हैं और हम विश्व गुरु बनने का सपना किस आधार पर देख सकते हैं। बिल्कुल नहीं ,कतई हम विश्व गुरु नहीं बन सकते हैं । जबतक स्व को ,अपने मूल को मजबूत अगर न कर सकते तो हमारे सपने बेबुनियाद हैं। 



हाल ही में हम जन्माष्टमी मनाए। बेशक ये त्योहार हमारे जीवन में रंग भरने को आते हैं। हम इसके दर्शन से रंगीन हो जाएं इतना तो पशु भी करते हैं। जैसे वर्षा हुई, कौआ नहा लिया। पर क्या इंसान होना कौआ होने जितना ही है या कुछ वृहद है कुछ अधिक समृद्धता है? मुझे लगता है की तमाम पर्व त्योहारों से खुद को जब हम रंग लेते है तो वह वाकई हर्षोल्लास का दुर्लभ कालखंड बन जाता है। पर अगर हम अपनी मानसिक, कार्मिक, वाचनिक तीनों ऊर्जाओं को उन रंगों की सजीवता को बनाए रखने में खर्च करें तो शायद ये अमरत्व को प्राप्त करने की राह पर निकल पड़े। 

जी हां, भागवत गीता के बिना मैं भगवान कृष्ण की पूजा अधूरी मानता हूं। भक्ति को मैं प्रेम के बिना या प्रेम को भक्ति के बिना कल्पित नहीं कर सकता। पर मुझे ये लगता है की अब द्वापर युग नहीं चल रहा है इस घोर कलयुग में सिर्फ प्रेम में अंधे होकर भक्ती करने से कृष्ण नहीं आएंगे इसलिए हरेक द्रौपदी को शस्त्र उठाना चाहिए। 

शस्त्र का अर्थ हाथियार से कतई नही है। हम एक लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं। संविधान ही हमारा वो शस्त्र है जो हमें कृष्ण के चक्र और श्रीराम के गांडीव की ताकत प्रदान कर सकता है। 



हमारा देश में एक ऐसा वर्ग है जो अलग ही प्रकार की रूढ़िवादी और असंगत विचार में जी रहा है। एक अलग ही विचारधारा चल रही है।दसवीं  कक्षा में दो ऑप्शन होते हैं। एक होता है संस्कृत, दूसरा होता है कंप्यूटर । अभी तक इतना ही जानते हैं बहुत सारे लोग । उसमें से कंप्यूटर जो है सीबीएसई वालों के लिए और आईसीएसई बोर्ड वालों के लिए आम भाषा बन चुकी है। मैं भी इसका सम्मान करता हूं और बच्चों को रिकमेंड भी करता हूं कि वे कंप्यूटर चुनें क्योंकि यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है। 

लेकिन इसी बीच मैंने ये देखा की लोग संस्कृत को कंप्यूटर के सामने तुच्छ मानते हैं। कई बार तो लोग यह तक कह डालते हैं की बाबा बनेगा क्या? अब उन्हीं से अगर पुछ लो की बाबा क्या होता है या बाबा बनना गलत है क्या, तो उनका चेहरा लाल हो जता है वो सकदम हो जाते हैं। भले वो खुल के न बोल पाएं पर अंदर का भाव यही होता है की संस्कृत तो पूजा पाठ की भाषा है, यह तो पौराणिक भाषा है, इसे पढ़कर क्या हो सकता है,  संस्कृत बोल के हम अपने बच्चो को मॉडर्न कैसे बना पाएंगे, हम स्मार्ट बॉय या स्मार्ट गर्ल कैसे बना पाएंगे? अरे महराज! जरा रुकिए। 

और जिस कंप्यूटर के सामने आप संस्कृत को तुच्छ समझ रहें हैं उसी कंप्यूटर से आप संस्कृत की मह्तता को पुछ लीजिए। आपके ज्ञानचक्षु खुल जायंेगे।



जरा सोंचिये की जिस संस्कृति का इतिहास बताता है कि संस्कृत  बोलचाल की भाषा थी, उसको सिर्फ आप पूजा पाठ तक सीमित कर चुके हैं। दसवीं कक्षा का विद्यार्थी एक संस्कृत भाषा लेता है तो आप उसको समझते हैं कि वह तो बाबा बन जाएगा, वो तो पंडित बन जाएगा। ब्राह्मण बनने के लिए पढ़ रहा है तो ।  जरा सोचिए कि क्या संस्कृत सिर्फ ब्राह्मणों की भाषा  है या आम जनमानस की भाषा है। 



आपकोकोई अगर गीता पढ़ना हुआ, भागवत पढ़ता हुआ ,कोई रामचरितमानस पढ़ता हुआ देख ले तो कहेगा ये तो बाबा बन रहा है इत्यादि। जरा सोचिए कि एकतरफ आप रामायण और महाभारत के सैकड़ों एपिसोड देख लेते हैं पर चार चौपाई, दो दोहे और छह छंद सुनाने को कहे जाएं तो शायद अवाक रह जायंेगे। इससे यह प्रमाणित होता है की हम राम, कृष्ण, और उनकी यश गायन या रामायण महाभारत को सिर्फ मनोरंजन तक सीमित कार के रख चुके हैं जिसे पश्चिमी सभ्यता एंटरटेनमेंट कहती है।

आज के हमउम्र युवा लोग हैं । गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड का जो संबंध चलता है आप जरा सा देखिए । मान लेते हैं कि कोई गर्लफ्रेंड है हमारी और हमने उसको गीता का उपदेश सुना दिया। रामायण की चौपाइयां सुना दी तो कहेंगे कि यह क्या सुनना शुरू कर दिया हमको बाबा नहीं बनना है। अरे मैडम बताओ तो सही की ये बाबा होते कौन हैं और हम अगर बन जाएं बाबा तो क्या कोई जुर्म है या तुम्हारे बॉयफ्रेंड होने के कसौटी से बर्खास्त हो जायंेगे? क्यों भई जिस धर्म ने हमे २५ साल का शंकराचार्य दिया, लवकुश दिया, नचिकेता दिया, गार्गी दिए, सावित्री दिया क्या ये सब ८० वर्ष के बूढ़े होने के बाद बाबा कहलाए थे?

कुछ  लोग यहां पर कहने आ जाएंगे की हर चीज का उम्र होता है। अब ये सही उम्र कब आएगा बताओ तो कोई मुझे। 

अगर  युवावस्था में गीता न पढ़ा तो बुढ़ापा में पढ़ूंगा? तो तुम्ही बताओ की अप्लाई कब करूंगा? कब उसका अप्लाई कब कर पाऊंगा। युवा साथी, महिला या पुरुष लोग कहेंगे कि  अभी तो हम जवान हैं न ,जवानी का जोश है। जवानी का जोश में तो हमको रोमांटिक बातें करनी चाहिए।  तो ओ दीदी या प्यारे चचा गीता से ज्यादा रोमांटिक चीज तो कुछ है ही नहीं, आपके पूरे लाइफ का रोमांस देता है वो। किस स्वप्न में हैं आप, हैलो!!आ

हम अपने  आसपास  के लोगों से कहना चाहते हैं की बार ध्यान दें की वे किस तरह के विचारों को मान रहे हैं और किन्हें नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। जैसा आप चाहेंगे, वैसा ही आपके आसपास का माहौल भी बन जाएगा। जैसे आप यूट्यूब पर जिस तरह के चैनलों को सब्सक्राइब करते हैं, आपको उन्हीं से संबंधित नोटिफिकेशन और रिमाइंडर प्राप्त होते हैं। उसी तरह, हम जैसे समाज में रह रहे हैं, हमने अपने चारों ओर अपनी पसंद के लोगों का एक घेरा बना लिया है। तो जब हमें यह स्वतंत्रता है की हम किसे अपने जीवन में शामिल करना चाहते हैं, किससे संवाद करना चाहते हैं, तो क्यों न हम अपने जीवन को बेहतर बनाने वाली चीजों को अपने आस-पास रखें? 


क्यों न हम अपने जीवन को उत्तम बनाने के लिए ऐसे विचारों को अपनाएं जो हमें उच्चता की ओर ले जाएं? हम श्री राम, श्री कृष्ण, माता रानी, मां दुर्गा, या सावित्री जैसे आदर्श क्यों नहीं बन सकते? क्यों नहीं? अगर हम चाहेंगे तो निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है क्योंकि हमारे भीतर वह शक्ति है जो हमें भगवान बना सकती है। हमारा धर्म सिखाता है कि कण-कण में भगवान है। तो जब कण-कण में भगवान है, तो इंसान में भगवान क्यों नहीं हो सकता? भगवान होना सिर्फ प्रतिमाओं की पूजा करना नहीं है, बल्कि प्रतिमाओं से प्रेरणा लेना है, उनके गुणों को अपनाना है, और उसी राह पर चलना है। यह सही मायने में सनातनी होने का प्रतीक है।


हाल ही में हमारे देश के विभिन्न इलाकों में, खासकर चौक-चौराहों पर, मटकी फोड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इस प्रतियोगिता को देखकर आप समझ सकते हैं कि इसमें कितनी अद्भुत एकता दिखाई देती है। 20-25 लोग मिलकर एक जमीन पर खड़े होते हैं और एक-एक करके ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे एक मानव पिरामिड बनता है। अंततः, सबसे ऊपर पहुंचकर एक व्यक्ति मटकी फोड़ता है, और मटकी का जल सब पर समान रूप से बरसता है। इस दृश्य में खुशी और उत्साह का अद्वितीय मिश्रण होता है। 


जरा सोचिए, 20-25 लोगों की यह मंडली, जो मटकी तक पहुंचने की कोशिश में बार-बार लड़खड़ाती है, संतुलन बिगड़ने के बावजूद भी बार-बार प्रयास करती है। कितनी बार वे गिरते हैं, फिर उठते हैं, और फिर से प्रयास करते हैं। लेकिन अंत में, मटकी फूटती ही है और सब पर जल बरसता ही है।


मटकी फोड़ प्रतियोगिता से बड़ा एकता का उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। कितनी बार इस प्रयास में लोग गिरते हैं, संतुलन खोते हैं, लेकिन एक-दूसरे का हाथ थामते हैं, मजबूती देते हैं, और अंततः मटकी फोड़कर ही दम लेते हैं। यह त्यौहार और खासकर यह प्रतियोगिता, हमें सिखाती है कि संघर्ष, सहयोग, और एकता से हम किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसे समझने और जीवन में उतारने की जरूरत है।

Happy Independence Day

जय हिंद 
🇮🇳🇮🇳🇮🇳
जय माधव! जय राधा बल्लभ! जय शिया राम। 
🚩🚩🚩

Saturday, August 24, 2024

शनिवार: अंक ६





 शनिवार की दोपहर और झारखंड की बरसात में से अगर किसी एक को भी आपने जिया है तो आपका जीवन धन्य है। और अगर दोनों एकसाथ जी लिया तो प्रकृति को सिर्फ ये कह देना की मैं तुम्हरा कृतज्ञ हूं ये अपर्याप्त होगा। 

 ये और बात है की हरेक पहलू के कई कई आयाम होते हैं पर अगर आपको पूरा ब्रह्मांड का भी दर्शन करना है अगर तो एक निश्चित समय बिंदु पर किसी एक ही बिंदु को जिएं तो आपका दर्शन शायद समर्पित कहलाएगा अन्यथा हरेक ५ सेकेंड में शॉर्ट वीडियो के स्लाइड्स बदलने से न तो आप दर्शन कर पाइएगा और न ही उस दर्शन का दर्शन समझ पाइएगा।

 खैर हम कहां भटक गए... 

 अगर आपने अपने श्रवण इंद्रियों का बेहतर प्रयोग किया हो तो पिछले वीडियो में आपको दो ध्वनि अवश्य सुनाई दिया होगा, नहीं सुने अगर तो अब भी इयरफोन लगा के आंख बंद कर लीजिए। इन दो ध्वनियों में एक ध्वनि की फ्रीक्वेंसी दूसरे की अपेक्षा अधिक जान पड़ती है। अंतर मामूली नहीं है। ज्यादा फ्रीक्वेंसी वाली ध्वनि बारिश की बूंदों का एल्वेस्टर की छत से सीधा संपर्क करने से हुआ है। और दूसरी ध्वनि उन जलकणों के अल्वेस्टर से संपर्क के बाद ओहारी से टपकने की ध्वनि है। इसके अलावा आप और भी बहुत कुछ देख सुन या दर्शन कर सकते हैं इस वीडियो क्लिप से। 

 एक बात अगर आपसब के साथ साझा करूं तो ये कहना चाहता हुं कि आज हमारे जीवन में ठहराव बहुत निम्न स्तर पर आ चुका है। मैंने, हमारे शब्द का जिक्र किया है, आप मुझे खुद से भिन्न समझने की नासमझी बिलकुल भी न करें। आप भी इस पर सोचें कि आपके जीवन में आप कितना भाग भाग के जी रहे हैं और कितना ठहर ठहर के। 

 हो सकता है की मैं यहां धारा बदल दूं तो आप असहज हो जाएं पर क्या है की इस विशेष लिखावट की प्रकृति मुझे एक खास धारा पर विशेष बात चीत की इजाजत नहीं देता है। आप कहेंगे की अभी अभी ठहर के जीने की बात कह रहे थे अभी खुद भागने लग गए। तो मेरा इसपर यह कतई राय नहीं है की आप एक जगह विशेष पर ठहर ही जाएं। यूं तो ठहर जाएं तो शायद कुछ विशेष ही प्राप्त कर लौटेंगे पर अगर उतना नहीं तो इतना ही ठहर जाइए। 

 आज भादो कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि है, परसों जन्माष्टमी है। सावन गए आज ५ दिन बीत गया है। मधुमास कहे जाने की खासियत लिए ये सावन न जाने कितने कांवरियों का जल भालेनाथ को अर्पित करा दिया। अर्धवृद्ध सज्जन, उनसे कम उम्र वाले अधेड़, और कुछ हमउम्र भी, बाबा के यहां से होकर आ गए।

 लोग कहते हैं कि शिव समा रहे मुझमें और में शून्य हो रहा हूं। भाई आर्यभट्ट की भी शायद गणित में ५४ प्रतिशत आएगा अगर इसकी प्रामाणिकता मांग लो। न तो आप खुद ही देख लो, कोलकाता केश में कपिल सिब्बल और तुषार मेहता जी का क्या वकालत चल रही है। रक्षाबंधन बीता, पूर्णिमा को। राखी खुल गए होंगे ६६ नहीं अब अपडेट करके ६८ प्रतिशत युवाओं से भरे इस देश के रक्षाबंधित युवाओं की कलाई से। और न भी खुला होगा गिने चुने लोगों का तो क्या प्रमाण की उस राखी के मोतियों को गिनने भर का भी समय हो उनके पास।

 रेडियो के १००.५ मेगा हर्ट्ज पर हर घंटे के समाचार देने के बाद अगर कैफ़ी आज़मी और लता मंगेशकर की कोई ऐसी गीत बज जाए ~

शब-ए-इंतज़ार आखिर, शब-ए-इंतज़ार 

आखिर कभी होगी मुक़्तसर भी, 

कभी होगी मुक़्तसर भी

ये चिराग़ ये चिराग़ बुझ रहे हैं, 

ये चिराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते जलते, 

मेरे साथ जलते जलते ये चिराग़ बुझ रहे हैं, 

ये चिराग़ बुझ रहे हैं - (३) मेरे साथ जलते जलते, मेरे साथ जलते जलते यूँही कोई मिल गया था, यूँही कोई मिल गया था सर-ए-राह चलते चलते, सर-ए-राह चलते चलते ...

 ~ तो रेडियो पर दूसरी फ्रीक्वेंसी लगाने या रेडियो को बंद करने से पहले जरा रुकिए इयरफोन को ठीक से एडजस्ट करके आवाज थोड़ा धीरे कीजिए और आंखे बंद करके ४~६ मिनट सुन के तो देखिए फिर बड़े बड़े स्क्रीन पर घंटों रील्स देखने से ज्यादा सुख न मिले तो कहिएगा।

 थोड़ा उत्तर मोड़ते हैं अब धारा तो ये सुनिए 

~ किय बालक तुहूं पंथ भुलल किय तू अइल कुराह जी 

 अरे नाही नागिन हम पंथ भुलल ना हम अइनी कुराह जी 

 अरे चाहूं तो अभी नाग नाथू गलिए गलिये डोरीआबूं जी ... 

खेलत गेंद गिरी जमुना जी में कृष्ण जी कूदी पड़े। 

अरे खेलत गेंद गिरी जमुना जी में कृष्ण जी कूदी पड़े।


इसी से मिलती जुलती एक और कृति पढ़िए 

लडिका है गोपाल लड़िका है गोपाल ,कूदी पड़े जमुना में 

लडि़का है गोपाल... कूदी पड़े जमुना में 

अरे जमुना में कूदे काली नाग नाथे 

फन पर हुअए सवार, कूदी पड़े जमुना में 

लडिका है गोपाल।

 आपकी उद्दंडता तब बाहर आती है जब आप सक्षम हों पर आपकी उद्दंडता तब ही अच्छी लगती है जब वो सार्थक हो उच्च उद्देश्य के लिए और निस्वार्थ किया गया हो। 

स्त्रीषु नर्म विवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसङ्कटे। गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम् ॥ 

अर्थात: स्त्री को प्रसन्न करने के लिए

 हास-परिहास में 

 विवाह में

 किसी कन्या की प्रशंसा में 

 आजीविका की रक्षा के लिए

 प्राणसंकट उपस्थित होने पर

  गौ और ब्राह्मण की रक्षा के लिए 

 किसी को मृत्यु से बचाने के लिए 

 ~ इन विषयों में झुठ बोलना अच्छा माना हुआ है। 

 जरा सोंचिये की गइयों से अगाध प्रेम करने वाले कृष्ण , भोलेनाथ के गले में विराजमान वासुकी को प्रणाम करने वाले कृष्ण , कालिया के फन पर नृत्य करते हुए ही अच्छे लगते हैं। और जिस जीवन काल में वो नृत्य करते हैं वो हमें असाधारण लगता है पर जीवन की वास्तविकता से अगर मिला कर देखें तो आज भी के बच्चों में भी वो उत्साह पूर्ण मात्रा में दिखाई पड़ते हैं पर बात है की उनको एक जामवंत चाहिए जो उनके अंदर के हनुमान को जगा सके। उनकी गलती पर हतोत्साहित नहीं बल्कि एक संतुलित संस्कार देकर उसे ज्ञान दे सके।

 ~तो चलिए अब थोड़ी देर होने को है कमल सत्यार्थी जी की ४ पंक्तियां अपने जीवन में उतारने को पढ़िए ~

 बल पौरुष घुड़दौड़ यहां है 

 समर सतत आराम कहां है 

 बाजी लगी हुई है पगले

 फेंक विजय के दांव मुसाफिर 

छोड़ पेड़ की छांव

 मुसाफिर ,छोड़ पेड़ की छांव 

 दो और पढ़े लीजिए ...

 देख दुपहरी ढलती जाती

 छाया रूप बदलती जाती 

सूरज घूम चला पश्चिम में

 बहुत दूर है गांव मुसाफिर

 छोड़ पेड़ की छांव मुसाफिर, छोड़ पेड़ की छांव।




Saturday, July 20, 2024

बिहार का राजनैतिक चित्रण : कुमार पवन

 आप गंगा के घाट पर इस स्थिति में हैं, जिसमें आपका एक पैर नदी के  अरार  पर और दूसरा पैर नदी के दलदल में है। लोग गहरे पानी में न चल जाएं उससे बचाव के लिए बांस की घेराबंदी की गई है। आप एक पैर अरार पर रखे हुए बंस को थामे खड़े हैं। बांस में  बहुत लोच है क्योंकि बहुत बजन पड़ रहा है। बांस छोड़ नहीं पा रहे हैं और अरार के पैर को इतनी मजबूती मिल नहीं पा रही है कि खुद को उबार सकें और न ही ये हो रहा है कि बांस और अरार के पैर उखड़ जाएं और हम डूब जाएं। बड़ी असमंजस की स्थिति है और ऐसा ही जीवन कट रहा है।

जिस बांस को पकड़े हैं उसपर भरोसा है भी और डर भी है कि का पता कब छूटे और हम धड़ाम से गिरें। ये गंगा का किनारा है कभी तो धारा शांत रहती है कभी उफान आती है, कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई भारी चीज़ पैर में आ फंसी है। डरती हुई आँखें देखती है तो वो कोई शब होता है। हृदय व्याकुल होता है। जिया डेरा जाता है । फिर से हनुमान चालीसा पढ़ते हैं और सांसें गिन-गिन के काट रहे हैं।

ऐसे में कोई नई बांस दे रहा है ऊपर से। ये बांस हरी हरी लगती है। क्या करें उलझन है। सूखे बांस को छोड़ के नया वाला पकड़ें या जैसे हैं वैसे ही हनुमान चालीसा पढ़ते रहें । पुरानी वाली लोच खा के भी टाने हुए है, कइयों को छोड़ भी चुका है जिनके शब पैरों से लग रहे थे। डर भी लगता है कि कहीं छोड़ने पकड़ने में ऐसा न हो कि बैलेंस खराब हो और हम ससर के गंगा माई को पियरी के जगह खुद को चढ़ा दे जाएं।

खड़े-खड़े सोच रहे थे कि ये बूढ़ा बांस भी हरा ही आया था एक दिन और इसको पकड़ने के लिए भी जोखिम लेना पड़ा था। फिर बांस को धूप - वर्षा लगती गई, पक गया, अब सुख गया है। जब पिछले को छोड़ के रिस्क लेके इसको पकड़े थे तो यही लगता था कि शायद ये दूसरे पैर को ऊपर खींच पाएगा और जहां से इसके मालिक बांस लगा रहे हैं अपने पास तक ले आएंगे हमारी भी जिंदगी बच पाएंगी, पर कहां ऐसा हो पाया है, बांस बदल गया पर हम उसी अर्ध दलदली स्थिति में रह गए।

अब नया बांस आया है, क्या करें पकड़ें या पुराने भरोसे की तरह टूट जाएगा ये सोंच कर छोड़ दे जाएं। क्या करें? हम जनता हैं बांस बाले जनार्दन कहते हैं सोचते हैं जनार्दन रहे होते तो ऐसे दलदल में होते, गाली लगती है जनार्दन शब्द खुद के लिए। डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि ये नया बांस मिडिल स्कूल बाले मास्टर साहब वाली कनैली न निकले जो 5-10 पीठ पर पटकाने के खराब चर्मरा जाती थी। क्या पता देखने में तो मजबूत लगती है पर क्या पता वजन संभाल पायेगी या बूढ़े से भी कामजोर साबित होगी।

खैर ये बात तो तय है कि रिस्क तो पिछली बार भी लिया था। हिम्मत और दम रखना तो आदत ही बन गई। एक मन करता है कि छोड़-छाड़ के साथ कूद जाएं जय गंगा मैया की ,बोल के । दूसरा कहता है कि कहीं ऐसा भी हो सकता है कि गंगा के नीचे कोई बांस मिले जो शिव जी का कंधा हो।

असमंजस तो है ही, स्थिति से संतुष्ट हैं नहीं तो मन कर रहा है कि ले लें जोखिम। क्योंकि केतनो कामजोर बांस रहेगा तो चौठारी तक मड़वा तान लेगा और वियाह के नेग पूरा हो जाएगा। ऐसे भी तो मरेंगे ऐसे ही मरेंगे। और कहीं शिव जी का कंधा निकल गया गलती से तो बाल बच्चे को आशीर्वाद प्राप्त हो जाएगा।

जय गंगा मैया। जय भोलेनाथ।

२० जुलाई २०२४

Saturday, July 13, 2024

फुल्लकुसुमित 🇮🇳

 पद्म यानि कमल जो भारत का राष्ट्रीय पुष्प है,

और भूषण यानि किसी संज्ञा की शोभा 

इस प्रकार मेरे अनुसार 

भारत में पद्मभूषण का अर्थ हुआ  एक ऐसा पद्म रूपी व्यक्तित्व जो हमारे राष्ट्र को आभूषित कर रहा है । 

तमाम पद्मों से सुशोभित मां भारती की गोद में अपनी क्रीड़ा से उनकी साड़ी को मटमैली करती हुई एक बाल वृद्धा , जी हां बाल वृद्धा से मिलना हो तो आप इनसे मिलिए, इनको पढ़िए, देखिए ,सुनिए और  इन सबसे महत्वपूर्ण आप इनको अपनाइए। 

और अपने आप को भारतीयता से अवगत कराते हुए इस कालखंड के साक्षी बनने का अधिकार प्राप्त करें।

श्रीमती सुधा मूर्ति मैम 


Friday, March 1, 2024

 ऐरावत सा शांत और जोशपुर्ण सुबह, रथ के चार घोड़ों सी दौड़ती दोपहर और हल जोत के लौटे वृषभ के जैसी शाम का जीवन का आनंद लेने के पश्चात जो कुछ ऊर्जा शेष रह जाती है उसे हम सम्पूर्ण दिन का लाभांश की संज्ञा दें तो शायद सार्थक मानी जायेगी। उन्हीं के क्षमता से बोई गई फसल को देख रेख करते हुए आंखें लग जाना किसी नवयुवक के लिए श्रद्धा और संतुष्टि का वो दुर्लभ कालखंड होता है जिसकी तलाश वो ऐरावत, अश्व और वृषभ के रुप में कर रहा था। 

नींद की हसीन गोद में मुस्कुराते हुए अंधेरी रात को जीने से बढ़कर क्या रक्खा है इस जहां में? जिसमें बिन खर्चा बिन पानी आप गगनयान के पायलट और कंचनजंघा के कल्पना चावला हो जाते हों। कुछ यूं हीं था दर दर भटकता हुआ की देखा तो बस देखता रह गया। क्या? पांव थमे,नजरें मिलीं, रोएं खड़े हुए, सकपकाए, ओंठ कांपे और क्या? अश्व के पैर, ऐरावत के जिगर, ओर वृषभ की तेज धड़कनें , जो देखा तो बस देखता रह गया। देखा क्या? अरे जैसे आंखों में रंग, होठ पे बांसुरी, पांव में पायल, मंदिर की घंटी, ओर जाने क्या क्या एकसाथ झनझनाये। अच्छा! पर ऐसा क्या देखा

सुनो क्या देखा सो

तेरी गलियों से था मैं गुजरता हुआ

चंद चौबीस चौपाईयां चबाता हुआ

खिली थी नजरें, धड़कन भी तेज

मंद थे स्वर पर थे गाते हुए

इक बार हुआ ये की, बस हो ही गया

ये नजरें उठीं और फिर टिक ही गईं

देखता रह गया पांव का वह जमीन

की हुआ आखिर क्या की वो आए नहीं

तेज आखों का और शोर धड़कन का भी

किया जो था दीदार वो लिखता हूं मैं

शेष जो है सियाही कलम शेष में

कोरी कागज के आंचल में रखता हूं मैं

शांत था पल और दुनिया रुकी

रुक गई थीं काली मंदिर की घड़ी 

हवा भी था सहसा हीं थम सा गया

बस थी एक ही धातु चालक भेष में

थे बाकी यूं रात्रि की शयन गोद में

ये धातु जो थी उसको देखती हुई

अपने में उसको समाई हुई 

थी प्रातः की संध्या सी वो गोधूली 

बिजली सी आई, झटका वो दी

मुस्कुराई, मुस्कुरा के आघात कर आई

फिर चली गई 

मैं! मैं तो देखा जो बस देखता रह गया

आते देखा, रुकते देखा,जाते देखा 

और ,और तमाम दृश्य को

 शादाब होते देखा। 






Sunday, January 1, 2023

YEAR: A UNIT OF TIME

One more year which is 2022 has gone and I am before you with a new blog of time. Before wishing you Happy New Year 2023 I would like to make it clear again that you  can't be happy the whole year  and ofcourse it is not good to take only sweets  in your diet .

रश्मिरथी में दिनकर साहब कहते हैं कि - 

 चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,

नर भले बने सुमधुर कोमल ,

पर अमृत क्लेश का पिए बिना,  

आताप अंधड़ में जिए बिना,

वह पुरुष नही कहला सकता,

विघ्नों को नही हिला सकता

So excellance of your humanism is only judged in hard times which is symbolized here by  manhood in the context of Karna (take this horizontally for men and women.)  

Actually  the sense of wishing happy new year is not to make you happy the whole year .It is the imagination towards smartness  of your humanism that in wished year you would handle every turn in the progression of life very wisely and happily . In this progression you would get some of them set in arithmetic or geometric and some of them would be completely surprising.  

          So now I wish you 

"A very happy new year " for 2023

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Wishes are brought to be true, are not come to be true 

All of us have  our own wishes for which we make efforts. It is very normal in the non fictious world. Actually wishes comes true only  in the stories of  fairy tale. Here in this real world you need to burn the candels at both ends to bring your wishes to be true. Sometimes we have to keep our wishes apart from us to achieve the same . Exceptions exist in every context so I will not go through it.  Dr. Kalaam has said that  maslen ,mushkilen zindagi ke hisse hain aur takleefen kamyaabi ki sachchaiyaan . So I think it is well to deserve first  to handle your wishes then desire to obtain. Because without the hangar you can't hold the aircraft. So dream your wishes , make hard  efforts for them with perseverance and then you will achieve it . 


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Management 

One more  year has gone with its constant attitude of moving ahead. And I found myself a novice manager also this  year . It is gradual to achieve something and we should continuously try to be better in every aspect. In fact time is precious so you must to use it wisely with correct proportion of calculated units. This year I watched the stopwatch many times and most of the times I was very active and fearul of slipping off of it. A good manager always knows the costs of all of his essentials listed in the catalogue . Because I was  very poor in estimation I started to record the units of  time a few weeks ago. The observation was of the time  I  spend in little things for eg. the time of bathing , the time of going any distance etc. By doing this I realised that sometimes we fight for a few minutes to ourselves and on the other hand we let much of the sand slip off without any proper attention . This totally meant that I couldn't hear the sound Tik-Tik -Tik  everytime . That's why I told that there is noviceness in my mangement. 


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2023: The year of application 

There are  no shortcuts in journey . We need to trace the way forward but the smart turns make it easier to complete  . With travelling forward,  simultaneaously you  get also the expierience of the distance traced before. So being conscious and using  your experience smartly may add on values of it.

 Dr. Kalaam says in his book Wings Of Fire that desire ,when it stems from the heart and spirit, when it is pure and intense , possesses awesome electromagnetic energy .This energy is released to the either each night ,as the mind falls into the sleep state .each morning it returns to the conscious state reinforced with the cosmic currents.That which has been imaged will surely and certainly manifested . You can rely ,young man ,upon this ageless promise as surely as you can rely upon the eternally unbroken promise of sunrise... and of spring.     


🌻 Have faith , if it would be reality in your dream , in your wish , in your love it must stay for forever .  

🌻Be patient and with preseverance make hard efforts . Add a new step everyday that lead the way to your dream.

🌻Try to keep yourself awaken and conscious as much as possible .Listen to Tik-Tik-Tik .

🌻And don't wish to be happy the whole year . Consider the year as the unit of time and celebrate it in its real form .Try to be a good human being with the great potential of your mental power that can handle all the situations of your life whether it is tough or convenient very happily. 




Thanks for being part of this blog...






What do the great people say? 

















🌻नव वर्ष संदेश (आचार्य प्रशांत) click here 🌻

Monday, October 17, 2022

16OCT2022

 

तेरे शहर में तुम्हारे सिवा क्या देखूँ, 

इन आँखों को कुछ दिखे तो पुरानी तस्वीर देखूँ ।

तुम जो कहती हो आंसुओं से मैं मन उड़ेल दूँ, 

सूखी आँखों के सिरहाने कैसे लबों पे शब्द लाऊँ?

बिना आंसू, घूंट घूंट रोने को तड़पूँ... 

आसमान ताकूँ तो एक अदृश्य डोर देखता हूँ, 

और, तेरे पवन में उड़ती पतंगों को बाँध चलूँ ।<

2OCT2022 महसूस करती होगी ना ?

 अटकी सी सांसें

सहमी सी आंखें

थरथराते ओंठ 

स्क्रीन पे रेंगती उंगलियाँ 

महसूस करती होगी ना 


धुंधली सी आंखे

उसमें गैलरी की तस्वीरें 

कानों में तेरी 

रिकॉर्डिंग की बातें 

महसूस करती होगी ना 


ये मन की मिल लूँ 

फिर ये कि क्यों दुख दूँ 

दूरी ये या करीबी ?

महसूस करती होगी ना 


पल पल की आहें

हर चेहरे में खोजें

एक झलक को तरसें

हर गली, सड़क, पुराने पड़ाव पे 

बेवजह जो गुजरूँ 

महसूस करती होगी ना 


मिलने से डर भी

उम्मीद ए ललक भी

कैसी खामोशी है ये

ना बोलूँ ना चुप हूँ

हँस हँस गुजरना

रो-रो गुज़ारना

महसूस करती होगी ना


हर खुशी हर दुख में (yahi Khushi, click here) 

तुमको ही ढूँढूँ

ना पाऊँ जब तुमको 

बिलबिला के, यूँ ही 

बेस्वाद हर अच्छे बुरे पल को 

यूँ ही मैं छोड़ूं

महसूस करती होगी ना 


तेरी वो निष्ठुरता 

आंवले सा प्रेम 

दीवाना मैं जिसका 

ना पाऊँ, ना तलाशूँ 

घूंट घूंट के जीना 

बेहोशी मे पीना 

महसूस करती होगी ना... 


Saturday, July 23, 2022

#कर्नाटक मामला

नीचे लिखे गए टिप्पणी को पढ़ने से पहले इस वीडियो को देख लें 👇
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 हालांकि हमारी संस्कृति सार्वजनिक स्थान पर किसिंग आदि गतिविधियों से बहुत अछूती रही है।  लेकिन वास्तविकता यह है कि, हम अब 21वीं सदी में मौजूद हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के युग में नहीं।

 किसी भी समाज का विकास  कई उतार-चढ़ाव अपने साथ लाता है।  उनको संभालना, उनके बीच संतुलन बनाना और उन्हें इस्तेमाल करने का तरीका सीखना ही जीवन जीने की कला है। 

यहाँ , कर्नाटक की घटना यह बताती है कि हममें (करीब 66 फीसदी आबादी) में कितना बदलाव आया है।

 हम में से कोई भी प्राइवेट और प्राइविसी जैसे शब्दों से अनजान नहीं है। आप इसका क्या मतलब समझते हैं? क्या केवल एफबी पासवर्ड या एटीएम पिन?

हालाँकि मैं किसी भी सार्वजनिक स्थान पर किसी भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की आलोचना नहीं कर रहा हूँ, लेकिन एक बार सोचिए कि आप क्या कर रहे हैं! आप अपने दोस्तों को चुनौती दिखा दे रहे हैं कि आप कितना प्यार का इजहार कर सकते हैं, और लड़कियों आप भी उन्हीं 66% में से हैं।

  सभी वेबसीरीज, हॉलीवुड फिल्में वगैरह वगैरह जो आप देखने के लिए इस्तेमाल करते हैं वह हमारी संस्कृति से उतनी मिलनसार नहीं हैं ये आपको समझनी चाहिए।

  वास्तव में आप खुद को गाली दे रहे हैं और नष्ट कर रहे हैं। और हाँ, आप यानी 66%।

दरअसल हम जिस शब्द का इस्तेमाल रिश्तों के लिए "प्यार" करते हैं, वह इन तौर-तरीकों में बिल्कुल गलत है और इस तरह हम धीरे-धीरे इसका वास्तविक अर्थ बदल रहे हैं।  और इसी तरह के बदलावों के कारण हमारे माता-पिता और शुभचिंतक  इस तरह के "प्यार" के आलोचक और खिलाफ हैं, तो आप दूसरी तरफ प्रभाव देख भी सकते हैं।

 हालांकि मैं अब ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। अपने आप में एक पागल प्रश्नकर्ता बनें और पूछें कि आप क्या कर रहे हैं, किस लिए कर रहे हैं?  मुझे यकीन है कि आपको जवाब मिल जाएगा।

 हालांकि मुझे यकीन है, लेकिन इतना भी यकीन नहीं है कि मेरे संपर्क में आने वाले लोग इस तरह की बेतुकी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं, इसलिए इस मामले में ध्यान दें कि लड़की ने एक ऐसा मोड़ लिया जिससे पूरी तरह से परिदृश्य  पलट गया ।  जिस लड़की को चूमते हुए देखा गया था , उसी ने  केस दर्ज कर 8 लोगों को आईपीसी, पोस्को और आईटी की धाराओं में फेंक दिया। आप मानसिक रूप से काफी मजबूत हैं कि यह समझ सकें कि मैं क्या कहना चाहता हूं।

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Although our culture was used to be very untouched with the activities like osculation etc. at public place. But the realities is that, we are now existing in 21st century not in the era of Maryada Purushottam Ram.

The evolution brings many ups and downs in any society. Handling, making balance between and learning the way to use them is the art of living. 

Here, the concern of the case of Karnataka shows that how much changes has been taken place in us (around 66% of the population). 

None of us are unknown to the words like Private and Privacy . What does it really mean to you? Only FB password or ATM Pin?

Although I'm not criticising any emotional representations at any public place but think once what are you doing! You are challenging to your friends that how much love you can express. And the girls! you are also in that 66% . 

All the webseries, Hollywood movies etcetera etcetera what you use to watch are not as fluent as for our culture that you should understand.

In reality you are abusing and destroying yourself and yourself means the 66%.

Actually the word we use Love for the relationship is absolutely wrong in these manners and in this way we are changing the real meaning of it gradually. And due to such shiftings our parents and wellwishers are very critical and against of the love of this kind, hence, you can see the effect on the other hand. 

Nevertheless I won't tell anymore. Be a mad questioner to yourself and ask what are you doing for? I'm sure you will get the answer. 

Although I'm sure but not sure enough that the people in my touch can act such absurd activities but notice in the case that the girl had taken a turn that completely flipped over the scenario. The same girl who is seen kissing files the case and threw 8 people under the acts of IPC, POSCO and IT. You are mentally strong enough to understand that what I want to say.


Tuesday, May 3, 2022

निस्तब्धता

 चांद और सूरज दो शक्तियाँ हैं ब्रह्मांड की, 

एक ही मंडल में पृथक चमकना व्यर्थ थोड़ी है ।


किसी का चले जाना अंत थोड़ी है, 

दूरियाँ का आशय किसी को खोना थोड़ी है ।


खैर जो भी है... तुम्हें खोना, खोना थोड़ी है, 

क्या हुआ जो तुम बिछड़े , किसी को पा लेना भी पाना

 थोड़ी है ।


तुम प्राकृतिक रहो इस धरा पर, 

गुलाब जो पसंद हो हमे तोड़ लेना जायज थोड़े है। 


गिली आंखें और सूखी ज़बान,      (महसूस करना) 

 खैर... 

नि:शब्दता संवाद का अंत थोड़ी है ।


आँखें ढंक कर सत्य से ओझल होके, 

प्रेम के लिए प्रेमी से मोह करना जायज थोड़े है। 


की क्या हुआ जो हम विलग हो गए, 

सत्य को स्वीकार कर मुड़ जाना नाजायज़ थोड़े है। 


ज़ख्मों से अनजान तुम भी नहीं हम भी नहीं, 

ये घाव को गहरा होने से बचाना नाजायज़ थोड़े है। 


अंजाम जो भी हो, पता नहीं.... पर 

इक बार ये सोंचो की स्वार्थ में जीना जायज थोड़े है। 


बेशक वो मान लें हमारी चाहतें

 पर जल का तैलीय स्पर्श स्नान थोड़े है। 


जिंदगी का एक नायाब तोहफा, 

और उसे भी कुबूल ना करना आसान थोड़े है। 


पल पल की मुलाकात और हर दूसरे पल की एक आह, 

क्या कहें ! मुलाकात शारीरिक हो जरूरी थोड़े है। 




Sunday, February 6, 2022



वो शैल के आधार थे
मंदाकिनी के किनार थे
सींचे वो जीवन भर जिन्हें
उन पौधों के वो आधार थे

हैं से थे- हो गए
चंद कुछ अंतराल में
बिना बताये चल दिये
छोड़ के मझधार में
क्या कहें कितना बहे
अश्रु ही बस रह गए हैं
कल तो हम पौधे ही थे
आज वृक्ष बना दिए हैं
दिल को दें सांत्वना
या वेदना को स्थान दें
कैसे करें स्थिर पर्वत?
और मंदाकिनी को किनार दें
वक़्त थे जो गुजार दें?
या अश्रु थे जो बिसार दें
कैसे गिनें उन जलकणों को
जिनको वो सम्भाले रखे थे
छोड़ दिया है आपने जो
तो ये न समझें निकल गए हैं
जिद मेरा बदला नहीं है
था जो कल तक मेरे हृदय में
गोद में बैठना हमे है
उंगली वो थामना अभी है
पीठ पर लदना अभी है
और पैर भी दाबना हमें है
ये वक्त था जो जीत गया है
साथ आपका छीन लिया है
छुपा लें हँसकर दर्द को भी
ऐसा कुछ बतला गया है

Tuesday, February 1, 2022

 



कितना खूबसूरत था वो पल!

खट... खट... खट... की आवाज कानों में गयी और आँखों ने अंगड़ाई लिया। खिड़की के ग्रिल पर बैठी वो चिड़िया सीसे पर चोंच मार - मारकर कब मेरे मन को स्वप्न भरे नींद से  चहक और प्रफुल्लता में खिंच लायी पता ही नहीं चला। पहली ही मुलाकात में वो चिड़िया मेरे मन में घर बना ली। 

  जो हमें अच्छा लग जाता है हमारा इंसानी दिमाग  उसका तदनंतर अवलोकन करने से नहीं चुकता। खुद के ऊपर हमारा  असंयम का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। गौर करने लगे। हर कुछ मिनट के बाद, बेवजह ध्यान उसकी ओर खिंचा चला जाता। जब ध्यान जाता तो आँख भरके देखता, फिर कभी शांत छोड़ कर लौट आता और कभी खिड़की खोल कर कोलाहल से उसे छेड़ देता और वो चिड़िया फटाक से फुर्र...

स्वच्छंद जीव को जब खुद आपके बंधन से लगाव होता हुआ दिखे तो आपकी प्रसन्नता बेहद बढ़ जाती है।

छोटी बहन से उसका जिक्र पाया, वो भी बहुत खुश होती थी चिड़िया के आने से। हमारा मन जब प्रसन्नता के गोते से उबरा तो ये दिमाग़ झट से प्रश्न कर बैठा। क्यों आती होगी ये चिड़िया, क्या ढूँढती होगी और क्या पा करके उड़ जाती होगी। 

दोनों ने अंदाज़े लगाया कि - शायद वो खिड़की के छज्जे की छाँव के लिए आती होगी, शायद वो अन्न के दाने तलाशती होगी, शायद उसे प्यास लगी हो, या हो सकता है वो खिड़की में बने अपने प्रतिबिंब को देखने आती होगी।

 मन ने कुछ टटोला और ये उसकी मुश्किलों को आसान करने के प्रयत्न में जुट गया। धान की कुछ बालियाँ ग्रिल से बाँध दिया और भोले बाबा के यहां जल ले जाने वाले मटकी में जल भर कर बाहर रख दिया। छुप कर प्रतीक्षा करने लग गए। उम्मीद से बहुत पहले उसने दस्तक दिया। अनबोली सी वो चिड़िया कब मुँहबोली बन गयी पता न चला। 

हमारे शांत मुख और चंचल आंखें बस उसे निहार रहे थे। कभी धान के दाने खाती, कभी चोंच मारती, कभी उड़ के छज्जे के ऊपर जाती और फिर से आके वहीं बैठती। उसकी क्रीड़ा से भरी क्रियाकलापों को देख देख के बहन मुँह बंद करके ना जाने कितनी बार खिलखिलायी और हम शांत स्वर में मुस्करा रहे थे।और मन ही मन कलम में सियाही डाल रहे थे ताकि आप सबको दृश्य का जिवित विवरण दे सकूं।

 यूँ ही वो खेलती रही और हम बेमन उसे छोड़कर पढ़ाने को निकल गए। लौटे तो देखा कि लगभग आधा धान फोंका जा चुका है पर मटकी ज्यादा खाली न हुई थी। भली छोटी से चिड़िया और उसकी छोटी सी चोंच कितना ही पानी पी पाती...


प्रकृति ने हम सबके लिए अनेक उपहार दिए हैं जिनसे हम अपना मन - मष्तिष्क को प्रफुल्लित कर सकते हैं और उसके उपहारों को सहेज कर उसका आभार व्यक्त कर सकते हैं।

समानान्तर सन्दर्भ से परिकल्पित पंक्तियाँ जो लिखते हुए प्रतिबिम्बित हो उठीं ~

वह चिड़िया जो-चोंच मार कर 

दूध-भरे जुंडी के दाने

रुचि से, रस से खा लेती है

वह छोटी संतोषी चिड़िया

नीले पंखोंवाली मैं हूंँ

मुझे अन्न से बहुत प्यार है।

~ केदारनाथ अग्रवाल

Sunday, January 2, 2022

YEAR :A UNIT OF TIME



 "Birth and death are just passage not of life but of time"~SADGURU 

None of us are untouched of the genuine jnana about the importance of time.

         Yesterday was the day to wish each other the greetings to be happy the whole year started the previous day . Once more the acquainteds attended us same as the previous year. Every expressions have particular energies and it is much better that people greet you to be happy.

     In the daily life anxiety and other business, if people try to fill up some happiness, what is much better than this! 

It is the human psychology that if you say or listen 100 times any positive words definitely it will make your mind better than the previous stage. Just like this is tough for me to be angry after having some sweets and cold water.😊

    But the wine can inebriate a person until it is in its active mode. After that we are found sleeping without pillow. 

I wish these greetings may stay with us for the whole year but I am sure enough that they won't.

Since childhood of 7-8 years I use to celebrate this day very same as the festival by making greeting crafts, paintings on paper and walls, wishing people on sharp 00:00 hour, enjoying picnic and since a few years by posting status and sending messages on FB and WhatsApp.

    Today I have noticed the correct calculation of time that we use to learn in primary schooling...

60 Seconds ➡️ 60 Minutes ➡️24 Hours ➡️7 Days ➡️ 30 Days ➡️ 12 Months ➡️ 10 Years and 100 Years.

If I am right these all are the units of time as well. We get new month each year, new date in every month, new day (Monday ) in each week, new morning everyday, new hour one after another, new minutes every after another and ofcourse we get new seconds one after another. Then why do we only celebrate the 1st January of every new year instead of these all units of time?

 Either we celebrate the units which are not fast frequent or we celebrate the majors. And what do we do for the celebration - after wishing and filling up the stomach some people enjoy touring, some start something new and some pledge to make changes.

We wish today and forget tommorw that to whom I had wished

We pledge today and forget before  Sankranti 

Specially in my case I make paintings today and tomorrow I write 2 January 2021 as the new date, 😂 😂 

This totally meant that we observe and enjoy the novelty and move ahead without assimilation. 

    In my accordance, as because year is also a unit of time we should enjoy it in its real form. Instead of enjoyment this is the right day to understand the importance of time and not only understand, we should assimilate this as good as that it can stay longer atleast for one year of whose 1st day we are celebrating today. 

 Understanding the value of time means your mind should be as trained that it can listen the sound tik - tik - tik even at the noisy place, not only at peaceful night.

Understanding value of time means to manage it as well as the prime minister or president do .

Understanding value of time means being punctual at sharp decipline like soldiers and other defence staffs. For eg : movie Gunjan Saxena  

With these word I would like to say that do not give this day to yourself only for enjoyment instead of enjoying it like the period of time. Thank you. 😊

My 2021 

YEAR comes and goes according to its nature. We the people fill up the pages of time by our deeds. The YEAR passed gave many new things and seized also many glittering gems from my life. I learnt many new lessons  this year. 

2022: YEAR OF APPLICATION. 

many things I say and many less I do that I've learnt utill 2021. So this is the year for application the previous one and boost up many more new ideas. 

Thanks to you all for being part of this blog... 

😊
Tik-Tik-Tik



धूप, धूल और धन्यवाद

  हमने वो गांव देखा है, गली खलिहान देखा है। गली की झिटकी से लेकर , खुला आसमान देखा है । शहर की चकचकी सड़कें , हमारा धन्यवाद तुमको। ये जो रफ...