Sunday, April 7, 2019

वो यादगार लम्हें....!




सुबह में तकरीबन 4 या 5 बजे  वाक्यांश कानो को स्पर्श करती दिल डरने लगता दिमाग सकपका जाता और पूरा शरीर में मानो करंट दौड़ जाता। मन ही मन खुश होते हुए भी हल्का सा झल्लाहट के साथ जिन्दगी शुरू होती थी। फटाफट फ्रेश होकर भींगे पाँव अपने कमरे की तरफ भागता था। दादी कहतीं थीं कि सब तिता भिंगा के गन्दा कर दे। मैं सुन तो सकता था बट उनके रूल को अप्लाई करने का मेरे पास वक़्त नहीं होता था। जल्दी जल्दी 3 कॉपी (1base babu, 1baba, और 1 babban sir) पकड़ता और दरवाजे की तरफ लपकता था। पैर तो हद से ज्यादा जोर लगा देती थी। कुछ दूर चलने के बाद चौक से थोरा पहले दुर्गा मंदिर का घड़ी देखता की 4:45 हो गया है। वहाँ से आगे निकलता तो 2 - 3 फ्रेंड के साथ कॉम्पिटिशन के साथ पथयात्रा प्रारंभ होती थी। आलतू फालतू और कभी कभी कुछ इंपोर्टेंट बातें करते - करते ट्यूशन के दरवाजे पर दस्तक देता जहां कुछ सहपाठी पहले से मौज़ूद होते थे। ट्यूशन भी बड़ा कमाल का था ना नाम ना ठिकाना बस इंपोर्टेंट थे वहाँ के सर जिनके हम आज भी कर्जदार हैं। जब 20-25 महाशय जमा होते तो दरवाजा खुलने की ध्वनि सुनाई पड़ती और सारे बच्चे जल्दी जल्दी प्रवेश करने की कोशिश करते ताकि आगे बैठ सकें। अंदर जाते तो एक चौंकी और उसके आगे 2-3दारीयां बिछी होती थीं। किसी तरह से एडजस्ट करते सब मिलकर। फिर चाय हाथ मे लेकर लूँगी पहने हुए सर आते थे। कप को ज़मीन पर रखकर 5-6मार्कर को चेक करते। और फिर 1hr तक (05a.m. से 06.a.m.) तक मैथ्स के साथ ज़बर्दस्त फाइटइंग चलती। 8-10लोग मे अक्सर कॉम्पिटिशन रहता था.. Ankit, Abhishek bittu, Golu, nitish, Sen sahab, Vashi ranjeet  Raushan, deepak, atish aur 2-3 लड़कियां। 6बजे छुट्टि होती तो भीड़ 2 भाग मे बंट जाती थी, एक चौक की तरफ और एक दूसरी तरफ। अपना रास्ता चौक की तरफ टर्न होता और ग्रुप मे मस्ती करते हुए बाबा का क्लास (सुभाष कुमार पांडे सर ) तक पहुँचाता। रेल्वे क्रासिंग के ठीक सामने था उनका क्लास। सबलोग ट्रैक पे खड़ा होकर सर के आने का वेट करते थे। थोड़ी ही देर बाद बड़ी सी साइकिल पर भारी भरकम जैकेट पहने सर को आते हुए नजर आते। सारी कॉमेंटबाजी रूक जाती और सबकी निगाहें बाबा को देखने लगती। सर आकर सबसे पहले 8kg बाला जैकेट खोलकर फूल तोड़ने लग जाते और सारे बच्चे धीरे- धीरे अपने अपने जगह पर बैठ जाते। कुछ देर बाद सर पूजा पाठ करके पढ़ाना आरंभ करते थे। इस 1hr में (06-07) हाथों को चैन नहीं मिलता था, जबर्दस्त 12-15 पेज रगड़ के लिखाई का काम होता था। समझ मे आये या ना आये उस से कोई मतलब नहीं। बीच बीच मे लोग मजे भी खूब लिया करते थे।  7 बजे वहाँ से निकलते तो बब्बन सर के यहाँ जाते, हाँथ पैर तो थक जाते थे लेकिन दिमाग बिल्कुल भी नहीं। तीन विद्यार्थी एक ही साइकिल पे रवाना होते थे,(हम, शुभम और अंकित)। उनके यहाँ पहुचते अंदर पढ़ रहे महानुभावों के निकलने का वेट करते। 8:10तक अंदर जाते फिर बारी बारी से narration, Voice, translation etc. का मस्‍त प्रैक्टिस चलता।छुट्टी होता तो सब घर जाते और हम 2 फ्रेंड चुपके से स्कूल मे जाके अपने सीट पे कॉपी रख आते। मानो रजिस्ट्री हो गया हो कोई छूता भी नहीं था। झटपट वापस घर जाकर 9 बजे तक रेडी होकर निकलते। और निकलते ही हमारा स्वागत होता था जलते प्लास्टिक के धुआँ से,दिमाग तो उसी वक़्त खराब हो जाता था। आगे बढ़कर दुर्गा मंदिर का घड़ी मे 9:30 बजा हुआ देखकर थोड़ा तेज चलने की कोशिश करता था। 
चौक पे पहुँचते ही पाँव धीरे हो जाते, चाह कर भी तेज नहीं चल पाते थे।साला ट्रेफिक बर्बाद करके रखता था पूरे माहौल को।कही से सब्जी बाला चिल्ला रहा है, कहीं से झंडू बाम बाला अपनी भावनाएँ प्रकट कर रहा है, कही से बस कंडक्टर अपने उत्तेजनाएँ व्यक्त किए जा रहा है। भीड़ को चीरते -फाड़ते स्कूल पहुंचता। 

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शनिवार: अंक ७

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