ऐरावत सा शांत और जोशपुर्ण सुबह, रथ के चार घोड़ों सी दौड़ती दोपहर और हल जोत के लौटे वृषभ के जैसी शाम का जीवन का आनंद लेने के पश्चात जो कुछ ऊर्जा शेष रह जाती है उसे हम सम्पूर्ण दिन का लाभांश की संज्ञा दें तो शायद सार्थक मानी जायेगी। उन्हीं के क्षमता से बोई गई फसल को देख रेख करते हुए आंखें लग जाना किसी नवयुवक के लिए श्रद्धा और संतुष्टि का वो दुर्लभ कालखंड होता है जिसकी तलाश वो ऐरावत, अश्व और वृषभ के रुप में कर रहा था।
नींद की हसीन गोद में मुस्कुराते हुए अंधेरी रात को जीने से बढ़कर क्या रक्खा है इस जहां में? जिसमें बिन खर्चा बिन पानी आप गगनयान के पायलट और कंचनजंघा के कल्पना चावला हो जाते हों। कुछ यूं हीं था दर दर भटकता हुआ की देखा तो बस देखता रह गया। क्या? पांव थमे,नजरें मिलीं, रोएं खड़े हुए, सकपकाए, ओंठ कांपे और क्या? अश्व के पैर, ऐरावत के जिगर, ओर वृषभ की तेज धड़कनें , जो देखा तो बस देखता रह गया। देखा क्या? अरे जैसे आंखों में रंग, होठ पे बांसुरी, पांव में पायल, मंदिर की घंटी, ओर जाने क्या क्या एकसाथ झनझनाये। अच्छा! पर ऐसा क्या देखा
सुनो क्या देखा सो
तेरी गलियों से था मैं गुजरता हुआ
चंद चौबीस चौपाईयां चबाता हुआ
खिली थी नजरें, धड़कन भी तेज
मंद थे स्वर पर थे गाते हुए
इक बार हुआ ये की, बस हो ही गया
ये नजरें उठीं और फिर टिक ही गईं
देखता रह गया पांव का वह जमीन
की हुआ आखिर क्या की वो आए नहीं
तेज आखों का और शोर धड़कन का भी
किया जो था दीदार वो लिखता हूं मैं
शेष जो है सियाही कलम शेष में
कोरी कागज के आंचल में रखता हूं मैं
शांत था पल और दुनिया रुकी
रुक गई थीं काली मंदिर की घड़ी
हवा भी था सहसा हीं थम सा गया
बस थी एक ही धातु चालक भेष में
थे बाकी यूं रात्रि की शयन गोद में
ये धातु जो थी उसको देखती हुई
अपने में उसको समाई हुई
थी प्रातः की संध्या सी वो गोधूली
बिजली सी आई, झटका वो दी
मुस्कुराई, मुस्कुरा के आघात कर आई
फिर चली गई
मैं! मैं तो देखा जो बस देखता रह गया
आते देखा, रुकते देखा,जाते देखा
और ,और तमाम दृश्य को
शादाब होते देखा।
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