बचपन की वो यादें...
सुबह में खाना खाते – खाते या कभी उस से पहले 5-6 लोगों की एक टोली,कुछ सहपाठी और कुछ जूनियर्स, मेरे घर के द्वार पर जमा होती थी, और उनके मुँह से एक ही बात निकलती थी पऽऽवऽऽनऽ…ये सुनकर खाना खाने की रफ्तार 300km/h, और दादी की जिह्वा पे एक ही वाक्यांश repeat हो जाती थी “अब एरा खाल हो गेलौ”....मम्मी भी वही की “खा ले बेटा अभी ओखनी हीएँ परी हथिन”। इनलोगों को अपने शब्द पूरा करते-करते मेरा drybathe हो जाता था, फिर स्कूल ड्रेस किसी तरह से तिर खींच कर शरीर पे चढ़ जाता था। आँगन के सामने 5 खाने बाली अलमारी से कुछ कॉपी किताब और एक बोरा कंधे पर रखकर सरपट दरवाजे की तरफ भागता था (बैग का प्रचलन तो मेरे ज़िन्दगी मे इंटरमीडिएट से शुरू हुआ)। फिर शुरू होता था आजाद परिंदों का सुहाना सफर,उछलते-कूदते-गुनगुनाते हुए स्कूल की आधी दूरी तय करने के बाद सबके पाँव थम से जाते थे, और तब हमारे कोमल हाँथ काँटों मे छिपी गुलाब की कलियों को तोड़ने लगती थी। गुलाब बाली आंटी का संबोधन (चीचीए-भतिए तोड़ ले रे... ) सुनने से पहले सबके हाथ में एक – एक कली आ जाती थी। मुँह को मोटेर्साइकिल का भोंपू बनाकर इस कदर भागता था जैसे पकड़ा गए तो जबरदस्ती शादी कर दी जाएगी। स्कूल के सामने छोटा सा तालाब था वहाँ जाके सबके पैर रुकते थे और हांफते – हांफते देखते कि rose तो ठीक है न कि वो भी हाँफ रहा है। महीने मे 20 दिन तो 9 बजे से पहले ही पहुँच जाते थे, फटाफट बस्ता मंदिर के पीछे छिपा करके(तबतक 2-4 महापुरुष और शामिल हो जाते थे) खेलने लग जाते थे। जाड़े की धूप मे करेंट-बिजली, पहाड़-पानी, नुक्चोरीया (लुका-छिपी) खेलने मे वास्तव मे बड़ा मजा आता था। खेत में खेलते खेलते आरी पर हेडमास्टर साहिबा जिन्हें हमसब बड़े प्यार से बुढ़िया मैडम कहते थे, लायक भी थीं! दिख जाती तो सब रुक कर उनके पास आने का wait करते और पास आते ही national anthem की तरह सब एक साथ goood moornning madaaam चिल्लाते थे।फिर हम में से किसी एक को चाबी का गुच्छा (सुतरी में बंधा हुआ) मिल जाता था। वो महाशय भी खुद को मैडम का निजी आदमी समझ कर इतना खुश हो जाता कि जैसे Kiss मिल गया हो, फुदकते हुए जाके ताला खोलता। झारू – वारू लगने के पश्चात हमलोग का क्लास मे पदार्पण होता और उसके कुछ देर बाद sir आते। 1:30 बजे बिहार सरकार थाली लाने घर भेजती और फिर खाके पहुचाने का tension, जल्दी-जल्दी थाली घर पहुंचा के वापस स्कूल आता और सुबह का बचा हुआ टास्क पूरा करने फिर से खेत की तरफ। 4pm में छुट्टि होती पर हमलोगों की 3bje ही, घर पहुचते-पहुचते क्रिकेट का schedule set होता but मेरा selection pending में रहता था (due to mummy’s decision) तब भी किसी तरह से 4 बजे तक निकल ही जाता था, और संकुचाते हुए 6 बजे लौटता तो दर्जनो उपलब्धियां हासिल करने के बाद मूवी मे थोड़ा मार-धार का scene चलता। फिर कुछ यूँ मेरी सफाई की जाती जैसे FeSo4 लगे लोहे को saresh paper से की जाती है। रोते रोते लालटेन खोजता और सीसा साफ करके माँ सरस्वती का आवाह्न करता। फिर गरमा-गरम रोटियां खाता और सो जाता.........
Narrated by: Kumãr Pãvañ
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