Sunday, February 6, 2022



वो शैल के आधार थे
मंदाकिनी के किनार थे
सींचे वो जीवन भर जिन्हें
उन पौधों के वो आधार थे

हैं से थे- हो गए
चंद कुछ अंतराल में
बिना बताये चल दिये
छोड़ के मझधार में
क्या कहें कितना बहे
अश्रु ही बस रह गए हैं
कल तो हम पौधे ही थे
आज वृक्ष बना दिए हैं
दिल को दें सांत्वना
या वेदना को स्थान दें
कैसे करें स्थिर पर्वत?
और मंदाकिनी को किनार दें
वक़्त थे जो गुजार दें?
या अश्रु थे जो बिसार दें
कैसे गिनें उन जलकणों को
जिनको वो सम्भाले रखे थे
छोड़ दिया है आपने जो
तो ये न समझें निकल गए हैं
जिद मेरा बदला नहीं है
था जो कल तक मेरे हृदय में
गोद में बैठना हमे है
उंगली वो थामना अभी है
पीठ पर लदना अभी है
और पैर भी दाबना हमें है
ये वक्त था जो जीत गया है
साथ आपका छीन लिया है
छुपा लें हँसकर दर्द को भी
ऐसा कुछ बतला गया है

No comments:

Post a Comment

शनिवार: अंक ७

  आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता ...