आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता है जिसकी हरेक कृति सुखदायक होती जाती है।
कबीरदास जी कहते हैं की ~
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
पर दृश्य यह है आज की सुख तो सुख है कई दफा हम दुख में भी अपने धर्म और धार्मिकता को छोड़ कर पश्चिमी संस्कृतियों के नुस्खे सर्च करते हुए दिखते हैं।
और विडंबना देखिए कि जो पश्चिमी देश हैं, वह हमारी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं। आज मैथिली ठाकुर ब्रिटेन में सभा करती हैं। प्रेमानंद जी को लाखों विदेशी सुन रहे हैं।
गीता दर्जनों देश पढ़ रही है। वहां आज आयुर्वेद , योग, गीता, रामचरितमानस इत्यादि ना जाने कितने भारतीय सभ्यताओं ओर संस्कृतियों को विदेशों में ले जाकर प्रसारित किया जा रहा है और हम अपने अपने घर की चीजों का कद्र करना भूलते जा रहे हैं। ,
सच ही कहा था कबीर दास जी ने की बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर, कैसे हम विश्व गुरु बनेंगे? खुद हम उसे चीज का पालन नहीं कर रहे हैं और हम विश्व गुरु बनने का सपना किस आधार पर देख सकते हैं। बिल्कुल नहीं ,कतई हम विश्व गुरु नहीं बन सकते हैं । जबतक स्व को ,अपने मूल को मजबूत अगर न कर सकते तो हमारे सपने बेबुनियाद हैं।
हाल ही में हम जन्माष्टमी मनाए। बेशक ये त्योहार हमारे जीवन में रंग भरने को आते हैं। हम इसके दर्शन से रंगीन हो जाएं इतना तो पशु भी करते हैं। जैसे वर्षा हुई, कौआ नहा लिया। पर क्या इंसान होना कौआ होने जितना ही है या कुछ वृहद है कुछ अधिक समृद्धता है? मुझे लगता है की तमाम पर्व त्योहारों से खुद को जब हम रंग लेते है तो वह वाकई हर्षोल्लास का दुर्लभ कालखंड बन जाता है। पर अगर हम अपनी मानसिक, कार्मिक, वाचनिक तीनों ऊर्जाओं को उन रंगों की सजीवता को बनाए रखने में खर्च करें तो शायद ये अमरत्व को प्राप्त करने की राह पर निकल पड़े।
जी हां, भागवत गीता के बिना मैं भगवान कृष्ण की पूजा अधूरी मानता हूं। भक्ति को मैं प्रेम के बिना या प्रेम को भक्ति के बिना कल्पित नहीं कर सकता। पर मुझे ये लगता है की अब द्वापर युग नहीं चल रहा है इस घोर कलयुग में सिर्फ प्रेम में अंधे होकर भक्ती करने से कृष्ण नहीं आएंगे इसलिए हरेक द्रौपदी को शस्त्र उठाना चाहिए।
शस्त्र का अर्थ हाथियार से कतई नही है। हम एक लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं। संविधान ही हमारा वो शस्त्र है जो हमें कृष्ण के चक्र और श्रीराम के गांडीव की ताकत प्रदान कर सकता है।
हमारा देश में एक ऐसा वर्ग है जो अलग ही प्रकार की रूढ़िवादी और असंगत विचार में जी रहा है। एक अलग ही विचारधारा चल रही है।दसवीं कक्षा में दो ऑप्शन होते हैं। एक होता है संस्कृत, दूसरा होता है कंप्यूटर । अभी तक इतना ही जानते हैं बहुत सारे लोग । उसमें से कंप्यूटर जो है सीबीएसई वालों के लिए और आईसीएसई बोर्ड वालों के लिए आम भाषा बन चुकी है। मैं भी इसका सम्मान करता हूं और बच्चों को रिकमेंड भी करता हूं कि वे कंप्यूटर चुनें क्योंकि यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है।
लेकिन इसी बीच मैंने ये देखा की लोग संस्कृत को कंप्यूटर के सामने तुच्छ मानते हैं। कई बार तो लोग यह तक कह डालते हैं की बाबा बनेगा क्या? अब उन्हीं से अगर पुछ लो की बाबा क्या होता है या बाबा बनना गलत है क्या, तो उनका चेहरा लाल हो जता है वो सकदम हो जाते हैं। भले वो खुल के न बोल पाएं पर अंदर का भाव यही होता है की संस्कृत तो पूजा पाठ की भाषा है, यह तो पौराणिक भाषा है, इसे पढ़कर क्या हो सकता है, संस्कृत बोल के हम अपने बच्चो को मॉडर्न कैसे बना पाएंगे, हम स्मार्ट बॉय या स्मार्ट गर्ल कैसे बना पाएंगे? अरे महराज! जरा रुकिए।
और जिस कंप्यूटर के सामने आप संस्कृत को तुच्छ समझ रहें हैं उसी कंप्यूटर से आप संस्कृत की मह्तता को पुछ लीजिए। आपके ज्ञानचक्षु खुल जायंेगे।
जरा सोंचिये की जिस संस्कृति का इतिहास बताता है कि संस्कृत बोलचाल की भाषा थी, उसको सिर्फ आप पूजा पाठ तक सीमित कर चुके हैं। दसवीं कक्षा का विद्यार्थी एक संस्कृत भाषा लेता है तो आप उसको समझते हैं कि वह तो बाबा बन जाएगा, वो तो पंडित बन जाएगा। ब्राह्मण बनने के लिए पढ़ रहा है तो । जरा सोचिए कि क्या संस्कृत सिर्फ ब्राह्मणों की भाषा है या आम जनमानस की भाषा है।
आपकोकोई अगर गीता पढ़ना हुआ, भागवत पढ़ता हुआ ,कोई रामचरितमानस पढ़ता हुआ देख ले तो कहेगा ये तो बाबा बन रहा है इत्यादि। जरा सोचिए कि एकतरफ आप रामायण और महाभारत के सैकड़ों एपिसोड देख लेते हैं पर चार चौपाई, दो दोहे और छह छंद सुनाने को कहे जाएं तो शायद अवाक रह जायंेगे। इससे यह प्रमाणित होता है की हम राम, कृष्ण, और उनकी यश गायन या रामायण महाभारत को सिर्फ मनोरंजन तक सीमित कार के रख चुके हैं जिसे पश्चिमी सभ्यता एंटरटेनमेंट कहती है।
आज के हमउम्र युवा लोग हैं । गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड का जो संबंध चलता है आप जरा सा देखिए । मान लेते हैं कि कोई गर्लफ्रेंड है हमारी और हमने उसको गीता का उपदेश सुना दिया। रामायण की चौपाइयां सुना दी तो कहेंगे कि यह क्या सुनना शुरू कर दिया हमको बाबा नहीं बनना है। अरे मैडम बताओ तो सही की ये बाबा होते कौन हैं और हम अगर बन जाएं बाबा तो क्या कोई जुर्म है या तुम्हारे बॉयफ्रेंड होने के कसौटी से बर्खास्त हो जायंेगे? क्यों भई जिस धर्म ने हमे २५ साल का शंकराचार्य दिया, लवकुश दिया, नचिकेता दिया, गार्गी दिए, सावित्री दिया क्या ये सब ८० वर्ष के बूढ़े होने के बाद बाबा कहलाए थे?
कुछ लोग यहां पर कहने आ जाएंगे की हर चीज का उम्र होता है। अब ये सही उम्र कब आएगा बताओ तो कोई मुझे।
अगर युवावस्था में गीता न पढ़ा तो बुढ़ापा में पढ़ूंगा? तो तुम्ही बताओ की अप्लाई कब करूंगा? कब उसका अप्लाई कब कर पाऊंगा। युवा साथी, महिला या पुरुष लोग कहेंगे कि अभी तो हम जवान हैं न ,जवानी का जोश है। जवानी का जोश में तो हमको रोमांटिक बातें करनी चाहिए। तो ओ दीदी या प्यारे चचा गीता से ज्यादा रोमांटिक चीज तो कुछ है ही नहीं, आपके पूरे लाइफ का रोमांस देता है वो। किस स्वप्न में हैं आप, हैलो!!आ
हम अपने आसपास के लोगों से कहना चाहते हैं की बार ध्यान दें की वे किस तरह के विचारों को मान रहे हैं और किन्हें नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। जैसा आप चाहेंगे, वैसा ही आपके आसपास का माहौल भी बन जाएगा। जैसे आप यूट्यूब पर जिस तरह के चैनलों को सब्सक्राइब करते हैं, आपको उन्हीं से संबंधित नोटिफिकेशन और रिमाइंडर प्राप्त होते हैं। उसी तरह, हम जैसे समाज में रह रहे हैं, हमने अपने चारों ओर अपनी पसंद के लोगों का एक घेरा बना लिया है। तो जब हमें यह स्वतंत्रता है की हम किसे अपने जीवन में शामिल करना चाहते हैं, किससे संवाद करना चाहते हैं, तो क्यों न हम अपने जीवन को बेहतर बनाने वाली चीजों को अपने आस-पास रखें?
क्यों न हम अपने जीवन को उत्तम बनाने के लिए ऐसे विचारों को अपनाएं जो हमें उच्चता की ओर ले जाएं? हम श्री राम, श्री कृष्ण, माता रानी, मां दुर्गा, या सावित्री जैसे आदर्श क्यों नहीं बन सकते? क्यों नहीं? अगर हम चाहेंगे तो निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है क्योंकि हमारे भीतर वह शक्ति है जो हमें भगवान बना सकती है। हमारा धर्म सिखाता है कि कण-कण में भगवान है। तो जब कण-कण में भगवान है, तो इंसान में भगवान क्यों नहीं हो सकता? भगवान होना सिर्फ प्रतिमाओं की पूजा करना नहीं है, बल्कि प्रतिमाओं से प्रेरणा लेना है, उनके गुणों को अपनाना है, और उसी राह पर चलना है। यह सही मायने में सनातनी होने का प्रतीक है।
हाल ही में हमारे देश के विभिन्न इलाकों में, खासकर चौक-चौराहों पर, मटकी फोड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इस प्रतियोगिता को देखकर आप समझ सकते हैं कि इसमें कितनी अद्भुत एकता दिखाई देती है। 20-25 लोग मिलकर एक जमीन पर खड़े होते हैं और एक-एक करके ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे एक मानव पिरामिड बनता है। अंततः, सबसे ऊपर पहुंचकर एक व्यक्ति मटकी फोड़ता है, और मटकी का जल सब पर समान रूप से बरसता है। इस दृश्य में खुशी और उत्साह का अद्वितीय मिश्रण होता है।
जरा सोचिए, 20-25 लोगों की यह मंडली, जो मटकी तक पहुंचने की कोशिश में बार-बार लड़खड़ाती है, संतुलन बिगड़ने के बावजूद भी बार-बार प्रयास करती है। कितनी बार वे गिरते हैं, फिर उठते हैं, और फिर से प्रयास करते हैं। लेकिन अंत में, मटकी फूटती ही है और सब पर जल बरसता ही है।
मटकी फोड़ प्रतियोगिता से बड़ा एकता का उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। कितनी बार इस प्रयास में लोग गिरते हैं, संतुलन खोते हैं, लेकिन एक-दूसरे का हाथ थामते हैं, मजबूती देते हैं, और अंततः मटकी फोड़कर ही दम लेते हैं। यह त्यौहार और खासकर यह प्रतियोगिता, हमें सिखाती है कि संघर्ष, सहयोग, और एकता से हम किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसे समझने और जीवन में उतारने की जरूरत है।