Saturday, July 20, 2024

बिहार का राजनैतिक चित्रण : कुमार पवन

 आप गंगा के घाट पर इस स्थिति में हैं, जिसमें आपका एक पैर नदी के  अरार  पर और दूसरा पैर नदी के दलदल में है। लोग गहरे पानी में न चल जाएं उससे बचाव के लिए बांस की घेराबंदी की गई है। आप एक पैर अरार पर रखे हुए बंस को थामे खड़े हैं। बांस में  बहुत लोच है क्योंकि बहुत बजन पड़ रहा है। बांस छोड़ नहीं पा रहे हैं और अरार के पैर को इतनी मजबूती मिल नहीं पा रही है कि खुद को उबार सकें और न ही ये हो रहा है कि बांस और अरार के पैर उखड़ जाएं और हम डूब जाएं। बड़ी असमंजस की स्थिति है और ऐसा ही जीवन कट रहा है।

जिस बांस को पकड़े हैं उसपर भरोसा है भी और डर भी है कि का पता कब छूटे और हम धड़ाम से गिरें। ये गंगा का किनारा है कभी तो धारा शांत रहती है कभी उफान आती है, कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई भारी चीज़ पैर में आ फंसी है। डरती हुई आँखें देखती है तो वो कोई शब होता है। हृदय व्याकुल होता है। जिया डेरा जाता है । फिर से हनुमान चालीसा पढ़ते हैं और सांसें गिन-गिन के काट रहे हैं।

ऐसे में कोई नई बांस दे रहा है ऊपर से। ये बांस हरी हरी लगती है। क्या करें उलझन है। सूखे बांस को छोड़ के नया वाला पकड़ें या जैसे हैं वैसे ही हनुमान चालीसा पढ़ते रहें । पुरानी वाली लोच खा के भी टाने हुए है, कइयों को छोड़ भी चुका है जिनके शब पैरों से लग रहे थे। डर भी लगता है कि कहीं छोड़ने पकड़ने में ऐसा न हो कि बैलेंस खराब हो और हम ससर के गंगा माई को पियरी के जगह खुद को चढ़ा दे जाएं।

खड़े-खड़े सोच रहे थे कि ये बूढ़ा बांस भी हरा ही आया था एक दिन और इसको पकड़ने के लिए भी जोखिम लेना पड़ा था। फिर बांस को धूप - वर्षा लगती गई, पक गया, अब सुख गया है। जब पिछले को छोड़ के रिस्क लेके इसको पकड़े थे तो यही लगता था कि शायद ये दूसरे पैर को ऊपर खींच पाएगा और जहां से इसके मालिक बांस लगा रहे हैं अपने पास तक ले आएंगे हमारी भी जिंदगी बच पाएंगी, पर कहां ऐसा हो पाया है, बांस बदल गया पर हम उसी अर्ध दलदली स्थिति में रह गए।

अब नया बांस आया है, क्या करें पकड़ें या पुराने भरोसे की तरह टूट जाएगा ये सोंच कर छोड़ दे जाएं। क्या करें? हम जनता हैं बांस बाले जनार्दन कहते हैं सोचते हैं जनार्दन रहे होते तो ऐसे दलदल में होते, गाली लगती है जनार्दन शब्द खुद के लिए। डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि ये नया बांस मिडिल स्कूल बाले मास्टर साहब वाली कनैली न निकले जो 5-10 पीठ पर पटकाने के खराब चर्मरा जाती थी। क्या पता देखने में तो मजबूत लगती है पर क्या पता वजन संभाल पायेगी या बूढ़े से भी कामजोर साबित होगी।

खैर ये बात तो तय है कि रिस्क तो पिछली बार भी लिया था। हिम्मत और दम रखना तो आदत ही बन गई। एक मन करता है कि छोड़-छाड़ के साथ कूद जाएं जय गंगा मैया की ,बोल के । दूसरा कहता है कि कहीं ऐसा भी हो सकता है कि गंगा के नीचे कोई बांस मिले जो शिव जी का कंधा हो।

असमंजस तो है ही, स्थिति से संतुष्ट हैं नहीं तो मन कर रहा है कि ले लें जोखिम। क्योंकि केतनो कामजोर बांस रहेगा तो चौठारी तक मड़वा तान लेगा और वियाह के नेग पूरा हो जाएगा। ऐसे भी तो मरेंगे ऐसे ही मरेंगे। और कहीं शिव जी का कंधा निकल गया गलती से तो बाल बच्चे को आशीर्वाद प्राप्त हो जाएगा।

जय गंगा मैया। जय भोलेनाथ।

२० जुलाई २०२४

Saturday, July 13, 2024

फुल्लकुसुमित 🇮🇳

 पद्म यानि कमल जो भारत का राष्ट्रीय पुष्प है,

और भूषण यानि किसी संज्ञा की शोभा 

इस प्रकार मेरे अनुसार 

भारत में पद्मभूषण का अर्थ हुआ  एक ऐसा पद्म रूपी व्यक्तित्व जो हमारे राष्ट्र को आभूषित कर रहा है । 

तमाम पद्मों से सुशोभित मां भारती की गोद में अपनी क्रीड़ा से उनकी साड़ी को मटमैली करती हुई एक बाल वृद्धा , जी हां बाल वृद्धा से मिलना हो तो आप इनसे मिलिए, इनको पढ़िए, देखिए ,सुनिए और  इन सबसे महत्वपूर्ण आप इनको अपनाइए। 

और अपने आप को भारतीयता से अवगत कराते हुए इस कालखंड के साक्षी बनने का अधिकार प्राप्त करें।

श्रीमती सुधा मूर्ति मैम 


Friday, March 1, 2024

 ऐरावत सा शांत और जोशपुर्ण सुबह, रथ के चार घोड़ों सी दौड़ती दोपहर और हल जोत के लौटे वृषभ के जैसी शाम का जीवन का आनंद लेने के पश्चात जो कुछ ऊर्जा शेष रह जाती है उसे हम सम्पूर्ण दिन का लाभांश की संज्ञा दें तो शायद सार्थक मानी जायेगी। उन्हीं के क्षमता से बोई गई फसल को देख रेख करते हुए आंखें लग जाना किसी नवयुवक के लिए श्रद्धा और संतुष्टि का वो दुर्लभ कालखंड होता है जिसकी तलाश वो ऐरावत, अश्व और वृषभ के रुप में कर रहा था। 

नींद की हसीन गोद में मुस्कुराते हुए अंधेरी रात को जीने से बढ़कर क्या रक्खा है इस जहां में? जिसमें बिन खर्चा बिन पानी आप गगनयान के पायलट और कंचनजंघा के कल्पना चावला हो जाते हों। कुछ यूं हीं था दर दर भटकता हुआ की देखा तो बस देखता रह गया। क्या? पांव थमे,नजरें मिलीं, रोएं खड़े हुए, सकपकाए, ओंठ कांपे और क्या? अश्व के पैर, ऐरावत के जिगर, ओर वृषभ की तेज धड़कनें , जो देखा तो बस देखता रह गया। देखा क्या? अरे जैसे आंखों में रंग, होठ पे बांसुरी, पांव में पायल, मंदिर की घंटी, ओर जाने क्या क्या एकसाथ झनझनाये। अच्छा! पर ऐसा क्या देखा

सुनो क्या देखा सो

तेरी गलियों से था मैं गुजरता हुआ

चंद चौबीस चौपाईयां चबाता हुआ

खिली थी नजरें, धड़कन भी तेज

मंद थे स्वर पर थे गाते हुए

इक बार हुआ ये की, बस हो ही गया

ये नजरें उठीं और फिर टिक ही गईं

देखता रह गया पांव का वह जमीन

की हुआ आखिर क्या की वो आए नहीं

तेज आखों का और शोर धड़कन का भी

किया जो था दीदार वो लिखता हूं मैं

शेष जो है सियाही कलम शेष में

कोरी कागज के आंचल में रखता हूं मैं

शांत था पल और दुनिया रुकी

रुक गई थीं काली मंदिर की घड़ी 

हवा भी था सहसा हीं थम सा गया

बस थी एक ही धातु चालक भेष में

थे बाकी यूं रात्रि की शयन गोद में

ये धातु जो थी उसको देखती हुई

अपने में उसको समाई हुई 

थी प्रातः की संध्या सी वो गोधूली 

बिजली सी आई, झटका वो दी

मुस्कुराई, मुस्कुरा के आघात कर आई

फिर चली गई 

मैं! मैं तो देखा जो बस देखता रह गया

आते देखा, रुकते देखा,जाते देखा 

और ,और तमाम दृश्य को

 शादाब होते देखा। 






Sunday, January 1, 2023

YEAR: A UNIT OF TIME

One more year which is 2022 has gone and I am before you with a new blog of time. Before wishing you Happy New Year 2023 I would like to make it clear again that you  can't be happy the whole year  and ofcourse it is not good to take only sweets  in your diet .

रश्मिरथी में दिनकर साहब कहते हैं कि - 

 चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,

नर भले बने सुमधुर कोमल ,

पर अमृत क्लेश का पिए बिना,  

आताप अंधड़ में जिए बिना,

वह पुरुष नही कहला सकता,

विघ्नों को नही हिला सकता

So excellance of your humanism is only judged in hard times which is symbolized here by  manhood in the context of Karna (take this horizontally for men and women.)  

Actually  the sense of wishing happy new year is not to make you happy the whole year .It is the imagination towards smartness  of your humanism that in wished year you would handle every turn in the progression of life very wisely and happily . In this progression you would get some of them set in arithmetic or geometric and some of them would be completely surprising.  

          So now I wish you 

"A very happy new year " for 2023

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Wishes are brought to be true, are not come to be true 

All of us have  our own wishes for which we make efforts. It is very normal in the non fictious world. Actually wishes comes true only  in the stories of  fairy tale. Here in this real world you need to burn the candels at both ends to bring your wishes to be true. Sometimes we have to keep our wishes apart from us to achieve the same . Exceptions exist in every context so I will not go through it.  Dr. Kalaam has said that  maslen ,mushkilen zindagi ke hisse hain aur takleefen kamyaabi ki sachchaiyaan . So I think it is well to deserve first  to handle your wishes then desire to obtain. Because without the hangar you can't hold the aircraft. So dream your wishes , make hard  efforts for them with perseverance and then you will achieve it . 


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Management 

One more  year has gone with its constant attitude of moving ahead. And I found myself a novice manager also this  year . It is gradual to achieve something and we should continuously try to be better in every aspect. In fact time is precious so you must to use it wisely with correct proportion of calculated units. This year I watched the stopwatch many times and most of the times I was very active and fearul of slipping off of it. A good manager always knows the costs of all of his essentials listed in the catalogue . Because I was  very poor in estimation I started to record the units of  time a few weeks ago. The observation was of the time  I  spend in little things for eg. the time of bathing , the time of going any distance etc. By doing this I realised that sometimes we fight for a few minutes to ourselves and on the other hand we let much of the sand slip off without any proper attention . This totally meant that I couldn't hear the sound Tik-Tik -Tik  everytime . That's why I told that there is noviceness in my mangement. 


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2023: The year of application 

There are  no shortcuts in journey . We need to trace the way forward but the smart turns make it easier to complete  . With travelling forward,  simultaneaously you  get also the expierience of the distance traced before. So being conscious and using  your experience smartly may add on values of it.

 Dr. Kalaam says in his book Wings Of Fire that desire ,when it stems from the heart and spirit, when it is pure and intense , possesses awesome electromagnetic energy .This energy is released to the either each night ,as the mind falls into the sleep state .each morning it returns to the conscious state reinforced with the cosmic currents.That which has been imaged will surely and certainly manifested . You can rely ,young man ,upon this ageless promise as surely as you can rely upon the eternally unbroken promise of sunrise... and of spring.     


🌻 Have faith , if it would be reality in your dream , in your wish , in your love it must stay for forever .  

🌻Be patient and with preseverance make hard efforts . Add a new step everyday that lead the way to your dream.

🌻Try to keep yourself awaken and conscious as much as possible .Listen to Tik-Tik-Tik .

🌻And don't wish to be happy the whole year . Consider the year as the unit of time and celebrate it in its real form .Try to be a good human being with the great potential of your mental power that can handle all the situations of your life whether it is tough or convenient very happily. 




Thanks for being part of this blog...






What do the great people say? 

















🌻नव वर्ष संदेश (आचार्य प्रशांत) click here 🌻

Monday, October 17, 2022

16OCT2022

 

तेरे शहर में तुम्हारे सिवा क्या देखूँ, 

इन आँखों को कुछ दिखे तो पुरानी तस्वीर देखूँ ।

तुम जो कहती हो आंसुओं से मैं मन उड़ेल दूँ, 

सूखी आँखों के सिरहाने कैसे लबों पे शब्द लाऊँ?

बिना आंसू, घूंट घूंट रोने को तड़पूँ... 

आसमान ताकूँ तो एक अदृश्य डोर देखता हूँ, 

और, तेरे पवन में उड़ती पतंगों को बाँध चलूँ ।<

2OCT2022 महसूस करती होगी ना ?

 अटकी सी सांसें

सहमी सी आंखें

थरथराते ओंठ 

स्क्रीन पे रेंगती उंगलियाँ 

महसूस करती होगी ना 


धुंधली सी आंखे

उसमें गैलरी की तस्वीरें 

कानों में तेरी 

रिकॉर्डिंग की बातें 

महसूस करती होगी ना 


ये मन की मिल लूँ 

फिर ये कि क्यों दुख दूँ 

दूरी ये या करीबी ?

महसूस करती होगी ना 


पल पल की आहें

हर चेहरे में खोजें

एक झलक को तरसें

हर गली, सड़क, पुराने पड़ाव पे 

बेवजह जो गुजरूँ 

महसूस करती होगी ना 


मिलने से डर भी

उम्मीद ए ललक भी

कैसी खामोशी है ये

ना बोलूँ ना चुप हूँ

हँस हँस गुजरना

रो-रो गुज़ारना

महसूस करती होगी ना


हर खुशी हर दुख में (yahi Khushi, click here) 

तुमको ही ढूँढूँ

ना पाऊँ जब तुमको 

बिलबिला के, यूँ ही 

बेस्वाद हर अच्छे बुरे पल को 

यूँ ही मैं छोड़ूं

महसूस करती होगी ना 


तेरी वो निष्ठुरता 

आंवले सा प्रेम 

दीवाना मैं जिसका 

ना पाऊँ, ना तलाशूँ 

घूंट घूंट के जीना 

बेहोशी मे पीना 

महसूस करती होगी ना... 


Saturday, July 23, 2022

#कर्नाटक मामला

नीचे लिखे गए टिप्पणी को पढ़ने से पहले इस वीडियो को देख लें 👇
Click here to watch video

 हालांकि हमारी संस्कृति सार्वजनिक स्थान पर किसिंग आदि गतिविधियों से बहुत अछूती रही है।  लेकिन वास्तविकता यह है कि, हम अब 21वीं सदी में मौजूद हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के युग में नहीं।

 किसी भी समाज का विकास  कई उतार-चढ़ाव अपने साथ लाता है।  उनको संभालना, उनके बीच संतुलन बनाना और उन्हें इस्तेमाल करने का तरीका सीखना ही जीवन जीने की कला है। 

यहाँ , कर्नाटक की घटना यह बताती है कि हममें (करीब 66 फीसदी आबादी) में कितना बदलाव आया है।

 हम में से कोई भी प्राइवेट और प्राइविसी जैसे शब्दों से अनजान नहीं है। आप इसका क्या मतलब समझते हैं? क्या केवल एफबी पासवर्ड या एटीएम पिन?

हालाँकि मैं किसी भी सार्वजनिक स्थान पर किसी भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की आलोचना नहीं कर रहा हूँ, लेकिन एक बार सोचिए कि आप क्या कर रहे हैं! आप अपने दोस्तों को चुनौती दिखा दे रहे हैं कि आप कितना प्यार का इजहार कर सकते हैं, और लड़कियों आप भी उन्हीं 66% में से हैं।

  सभी वेबसीरीज, हॉलीवुड फिल्में वगैरह वगैरह जो आप देखने के लिए इस्तेमाल करते हैं वह हमारी संस्कृति से उतनी मिलनसार नहीं हैं ये आपको समझनी चाहिए।

  वास्तव में आप खुद को गाली दे रहे हैं और नष्ट कर रहे हैं। और हाँ, आप यानी 66%।

दरअसल हम जिस शब्द का इस्तेमाल रिश्तों के लिए "प्यार" करते हैं, वह इन तौर-तरीकों में बिल्कुल गलत है और इस तरह हम धीरे-धीरे इसका वास्तविक अर्थ बदल रहे हैं।  और इसी तरह के बदलावों के कारण हमारे माता-पिता और शुभचिंतक  इस तरह के "प्यार" के आलोचक और खिलाफ हैं, तो आप दूसरी तरफ प्रभाव देख भी सकते हैं।

 हालांकि मैं अब ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। अपने आप में एक पागल प्रश्नकर्ता बनें और पूछें कि आप क्या कर रहे हैं, किस लिए कर रहे हैं?  मुझे यकीन है कि आपको जवाब मिल जाएगा।

 हालांकि मुझे यकीन है, लेकिन इतना भी यकीन नहीं है कि मेरे संपर्क में आने वाले लोग इस तरह की बेतुकी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं, इसलिए इस मामले में ध्यान दें कि लड़की ने एक ऐसा मोड़ लिया जिससे पूरी तरह से परिदृश्य  पलट गया ।  जिस लड़की को चूमते हुए देखा गया था , उसी ने  केस दर्ज कर 8 लोगों को आईपीसी, पोस्को और आईटी की धाराओं में फेंक दिया। आप मानसिक रूप से काफी मजबूत हैं कि यह समझ सकें कि मैं क्या कहना चाहता हूं।

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Although our culture was used to be very untouched with the activities like osculation etc. at public place. But the realities is that, we are now existing in 21st century not in the era of Maryada Purushottam Ram.

The evolution brings many ups and downs in any society. Handling, making balance between and learning the way to use them is the art of living. 

Here, the concern of the case of Karnataka shows that how much changes has been taken place in us (around 66% of the population). 

None of us are unknown to the words like Private and Privacy . What does it really mean to you? Only FB password or ATM Pin?

Although I'm not criticising any emotional representations at any public place but think once what are you doing! You are challenging to your friends that how much love you can express. And the girls! you are also in that 66% . 

All the webseries, Hollywood movies etcetera etcetera what you use to watch are not as fluent as for our culture that you should understand.

In reality you are abusing and destroying yourself and yourself means the 66%.

Actually the word we use Love for the relationship is absolutely wrong in these manners and in this way we are changing the real meaning of it gradually. And due to such shiftings our parents and wellwishers are very critical and against of the love of this kind, hence, you can see the effect on the other hand. 

Nevertheless I won't tell anymore. Be a mad questioner to yourself and ask what are you doing for? I'm sure you will get the answer. 

Although I'm sure but not sure enough that the people in my touch can act such absurd activities but notice in the case that the girl had taken a turn that completely flipped over the scenario. The same girl who is seen kissing files the case and threw 8 people under the acts of IPC, POSCO and IT. You are mentally strong enough to understand that what I want to say.


Tuesday, May 3, 2022

निस्तब्धता

 चांद और सूरज दो शक्तियाँ हैं ब्रह्मांड की, 

एक ही मंडल में पृथक चमकना व्यर्थ थोड़ी है ।


किसी का चले जाना अंत थोड़ी है, 

दूरियाँ का आशय किसी को खोना थोड़ी है ।


खैर जो भी है... तुम्हें खोना, खोना थोड़ी है, 

क्या हुआ जो तुम बिछड़े , किसी को पा लेना भी पाना

 थोड़ी है ।


तुम प्राकृतिक रहो इस धरा पर, 

गुलाब जो पसंद हो हमे तोड़ लेना जायज थोड़े है। 


गिली आंखें और सूखी ज़बान,      (महसूस करना) 

 खैर... 

नि:शब्दता संवाद का अंत थोड़ी है ।


आँखें ढंक कर सत्य से ओझल होके, 

प्रेम के लिए प्रेमी से मोह करना जायज थोड़े है। 


की क्या हुआ जो हम विलग हो गए, 

सत्य को स्वीकार कर मुड़ जाना नाजायज़ थोड़े है। 


ज़ख्मों से अनजान तुम भी नहीं हम भी नहीं, 

ये घाव को गहरा होने से बचाना नाजायज़ थोड़े है। 


अंजाम जो भी हो, पता नहीं.... पर 

इक बार ये सोंचो की स्वार्थ में जीना जायज थोड़े है। 


बेशक वो मान लें हमारी चाहतें

 पर जल का तैलीय स्पर्श स्नान थोड़े है। 


जिंदगी का एक नायाब तोहफा, 

और उसे भी कुबूल ना करना आसान थोड़े है। 


पल पल की मुलाकात और हर दूसरे पल की एक आह, 

क्या कहें ! मुलाकात शारीरिक हो जरूरी थोड़े है। 




Sunday, February 6, 2022



वो शैल के आधार थे
मंदाकिनी के किनार थे
सींचे वो जीवन भर जिन्हें
उन पौधों के वो आधार थे

हैं से थे- हो गए
चंद कुछ अंतराल में
बिना बताये चल दिये
छोड़ के मझधार में
क्या कहें कितना बहे
अश्रु ही बस रह गए हैं
कल तो हम पौधे ही थे
आज वृक्ष बना दिए हैं
दिल को दें सांत्वना
या वेदना को स्थान दें
कैसे करें स्थिर पर्वत?
और मंदाकिनी को किनार दें
वक़्त थे जो गुजार दें?
या अश्रु थे जो बिसार दें
कैसे गिनें उन जलकणों को
जिनको वो सम्भाले रखे थे
छोड़ दिया है आपने जो
तो ये न समझें निकल गए हैं
जिद मेरा बदला नहीं है
था जो कल तक मेरे हृदय में
गोद में बैठना हमे है
उंगली वो थामना अभी है
पीठ पर लदना अभी है
और पैर भी दाबना हमें है
ये वक्त था जो जीत गया है
साथ आपका छीन लिया है
छुपा लें हँसकर दर्द को भी
ऐसा कुछ बतला गया है

Tuesday, February 1, 2022

 



कितना खूबसूरत था वो पल!

खट... खट... खट... की आवाज कानों में गयी और आँखों ने अंगड़ाई लिया। खिड़की के ग्रिल पर बैठी वो चिड़िया सीसे पर चोंच मार - मारकर कब मेरे मन को स्वप्न भरे नींद से  चहक और प्रफुल्लता में खिंच लायी पता ही नहीं चला। पहली ही मुलाकात में वो चिड़िया मेरे मन में घर बना ली। 

  जो हमें अच्छा लग जाता है हमारा इंसानी दिमाग  उसका तदनंतर अवलोकन करने से नहीं चुकता। खुद के ऊपर हमारा  असंयम का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। गौर करने लगे। हर कुछ मिनट के बाद, बेवजह ध्यान उसकी ओर खिंचा चला जाता। जब ध्यान जाता तो आँख भरके देखता, फिर कभी शांत छोड़ कर लौट आता और कभी खिड़की खोल कर कोलाहल से उसे छेड़ देता और वो चिड़िया फटाक से फुर्र...

स्वच्छंद जीव को जब खुद आपके बंधन से लगाव होता हुआ दिखे तो आपकी प्रसन्नता बेहद बढ़ जाती है।

छोटी बहन से उसका जिक्र पाया, वो भी बहुत खुश होती थी चिड़िया के आने से। हमारा मन जब प्रसन्नता के गोते से उबरा तो ये दिमाग़ झट से प्रश्न कर बैठा। क्यों आती होगी ये चिड़िया, क्या ढूँढती होगी और क्या पा करके उड़ जाती होगी। 

दोनों ने अंदाज़े लगाया कि - शायद वो खिड़की के छज्जे की छाँव के लिए आती होगी, शायद वो अन्न के दाने तलाशती होगी, शायद उसे प्यास लगी हो, या हो सकता है वो खिड़की में बने अपने प्रतिबिंब को देखने आती होगी।

 मन ने कुछ टटोला और ये उसकी मुश्किलों को आसान करने के प्रयत्न में जुट गया। धान की कुछ बालियाँ ग्रिल से बाँध दिया और भोले बाबा के यहां जल ले जाने वाले मटकी में जल भर कर बाहर रख दिया। छुप कर प्रतीक्षा करने लग गए। उम्मीद से बहुत पहले उसने दस्तक दिया। अनबोली सी वो चिड़िया कब मुँहबोली बन गयी पता न चला। 

हमारे शांत मुख और चंचल आंखें बस उसे निहार रहे थे। कभी धान के दाने खाती, कभी चोंच मारती, कभी उड़ के छज्जे के ऊपर जाती और फिर से आके वहीं बैठती। उसकी क्रीड़ा से भरी क्रियाकलापों को देख देख के बहन मुँह बंद करके ना जाने कितनी बार खिलखिलायी और हम शांत स्वर में मुस्करा रहे थे।और मन ही मन कलम में सियाही डाल रहे थे ताकि आप सबको दृश्य का जिवित विवरण दे सकूं।

 यूँ ही वो खेलती रही और हम बेमन उसे छोड़कर पढ़ाने को निकल गए। लौटे तो देखा कि लगभग आधा धान फोंका जा चुका है पर मटकी ज्यादा खाली न हुई थी। भली छोटी से चिड़िया और उसकी छोटी सी चोंच कितना ही पानी पी पाती...


प्रकृति ने हम सबके लिए अनेक उपहार दिए हैं जिनसे हम अपना मन - मष्तिष्क को प्रफुल्लित कर सकते हैं और उसके उपहारों को सहेज कर उसका आभार व्यक्त कर सकते हैं।

समानान्तर सन्दर्भ से परिकल्पित पंक्तियाँ जो लिखते हुए प्रतिबिम्बित हो उठीं ~

वह चिड़िया जो-चोंच मार कर 

दूध-भरे जुंडी के दाने

रुचि से, रस से खा लेती है

वह छोटी संतोषी चिड़िया

नीले पंखोंवाली मैं हूंँ

मुझे अन्न से बहुत प्यार है।

~ केदारनाथ अग्रवाल

Sunday, January 2, 2022

YEAR :A UNIT OF TIME



 "Birth and death are just passage not of life but of time"~SADGURU 

None of us are untouched of the genuine jnana about the importance of time.

         Yesterday was the day to wish each other the greetings to be happy the whole year started the previous day . Once more the acquainteds attended us same as the previous year. Every expressions have particular energies and it is much better that people greet you to be happy.

     In the daily life anxiety and other business, if people try to fill up some happiness, what is much better than this! 

It is the human psychology that if you say or listen 100 times any positive words definitely it will make your mind better than the previous stage. Just like this is tough for me to be angry after having some sweets and cold water.😊

    But the wine can inebriate a person until it is in its active mode. After that we are found sleeping without pillow. 

I wish these greetings may stay with us for the whole year but I am sure enough that they won't.

Since childhood of 7-8 years I use to celebrate this day very same as the festival by making greeting crafts, paintings on paper and walls, wishing people on sharp 00:00 hour, enjoying picnic and since a few years by posting status and sending messages on FB and WhatsApp.

    Today I have noticed the correct calculation of time that we use to learn in primary schooling...

60 Seconds ➡️ 60 Minutes ➡️24 Hours ➡️7 Days ➡️ 30 Days ➡️ 12 Months ➡️ 10 Years and 100 Years.

If I am right these all are the units of time as well. We get new month each year, new date in every month, new day (Monday ) in each week, new morning everyday, new hour one after another, new minutes every after another and ofcourse we get new seconds one after another. Then why do we only celebrate the 1st January of every new year instead of these all units of time?

 Either we celebrate the units which are not fast frequent or we celebrate the majors. And what do we do for the celebration - after wishing and filling up the stomach some people enjoy touring, some start something new and some pledge to make changes.

We wish today and forget tommorw that to whom I had wished

We pledge today and forget before  Sankranti 

Specially in my case I make paintings today and tomorrow I write 2 January 2021 as the new date, 😂 😂 

This totally meant that we observe and enjoy the novelty and move ahead without assimilation. 

    In my accordance, as because year is also a unit of time we should enjoy it in its real form. Instead of enjoyment this is the right day to understand the importance of time and not only understand, we should assimilate this as good as that it can stay longer atleast for one year of whose 1st day we are celebrating today. 

 Understanding the value of time means your mind should be as trained that it can listen the sound tik - tik - tik even at the noisy place, not only at peaceful night.

Understanding value of time means to manage it as well as the prime minister or president do .

Understanding value of time means being punctual at sharp decipline like soldiers and other defence staffs. For eg : movie Gunjan Saxena  

With these word I would like to say that do not give this day to yourself only for enjoyment instead of enjoying it like the period of time. Thank you. 😊

My 2021 

YEAR comes and goes according to its nature. We the people fill up the pages of time by our deeds. The YEAR passed gave many new things and seized also many glittering gems from my life. I learnt many new lessons  this year. 

2022: YEAR OF APPLICATION. 

many things I say and many less I do that I've learnt utill 2021. So this is the year for application the previous one and boost up many more new ideas. 

Thanks to you all for being part of this blog... 

😊
Tik-Tik-Tik



Sunday, November 14, 2021

बाल दिवस : अंकुरों के मिट्टी और मौसम

 


बच्चे : भविष्य के नौनिहाल


इन्साफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के यह देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के। 
कहते हैं कि आपका भविष्य कैसा होगा ये आपके वर्तमान पर निर्भर करता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं इसका कुछ न कुछ परिणाम होगा जिसका एहसास आपको देर - सवेर हो ही जाएगा।
शिशु जब जन्म लेता है तो माँ कि आंचल ही उसकी दुनिया होती है। धीरे - धीरे वो हर उस चीज़ की नवीनता को महसूस करता है जो उसकी माँ के सहारे उसके संपर्क में आता है। बार बार के संपर्क से वो चीजों को पहचानने लग जाता है।
चीजें उसके मस्तिष्क में तस्वीर के रूप में संग्रहित होने लग जााते हैं। जैसे- जैसे वो बड़ा होता है उसके हरेक अंगों का क्रमिक विकास होता है। उसमेें सोचने समझने और याद रखने की प्रवृत्तियों का विस्तार होने लगता हैं। नन्हें आंखों से वो अपने सामने आने वाले चीजों को कैद करना शुरू कर देता है। 

किसके सामने रोना है, कब हंसना है, किसके सामने खाना के लिए रोना है, किसके सामने घूमने के लिए रोना है वो समझने लगता है। जिसे वो सबसे करीब पाता है उसे अपना मानने लगता है उसकी गोद में वो खुद को सुरक्षित महसूस करता है। वो अपने परिवेश के अवलोकन से ही बोलना, चलना, इशारा करना इत्यादि क्रियाओं को करना सीख लेता है।

किस तरह से एक बच्चा अपने परिवेश का अवलोकन करता  है उसको एक उदाहरण से समझने का प्रयास करें - मैं यहां दो अबोध बच्चों की बात करूँगा एक बच्चा है जिसके पिताजी JCB का बिजनेस करते हैं यानी ड्राइवर से चलवाते हैं  और जो दूसरा है उसके पिताजी किसान हैं, आप देखेंगे कि पहले का शौक, खिलौना, बातचीत, यहाँ तक कि उसके सपनों में JCB का प्रयोग ज्यादा होगा वहीं दूसरे का शौक, खिलौना, बातचीत और सपनों को देख कर आप किसान से मिलता जुलता व्यक्तित्व की कल्पना अवश्य कर लेंगे।

मेरा यहाँ यह कतई अर्थ नहीं है कि पिता का व्यवसाय ही पुत्र के भविष्य व प्रगति को तय करता है। मेरा तो बस ये मानना है कि जो जिस परिवेश में रहता है उसपर उसके सम-विषम आचरण का आ जाना स्वाभाविक है, प्रकृति की मिसाल है। और उसी परिवेश से निकला हुआ बच्चा अपने बचपन को जीते हुए जब युवावस्था में अपने व्यवसाय का चयन करता है तो उसमे उसके आचरण का विशेष महत्व देखा जा सकता है। अर्थात यह तय करना अनुचित नहीं होगा कि हमारे बच्चे कल के लिए सींचे जा रहे पौधे हैं।

कैसी है सिंचाई

बात अगर स्कूली शिक्षा कि की जाय तो यह कहना सामान्य सी बात है कि हमारा समाज तीन भागों में बंटा हुआ सा दिखाई देता है। ये दृश्य आज नया थोड़े है, आजादी के बाद से ही देखा जाता रहा है। एक वर्ग हैं जिनके बच्चे उच्च दर्जे के प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थि हैं, दूसरा वर्ग हैं जो अपने बच्चों को किसी प्रकार से मध्यम तबके के प्राइवेट स्कूलों में भेजने को विवश हैं और तीसरे वर्ग के अभिभावक अपने बच्चों को निम्न श्रेणी के विद्यालय या बिहार, ऊ. प्र., झारखंड, जैसे राज्यों के सरकारी विद्यालयों में भेज कर अनुपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।

तीनों प्रकार के विद्यालयों कि तुलना की जाय तो पाएंगे कि शिक्षा तो तीनों दे रहे हैं, लगभग - लगभग पाठ्यक्रम भी उभयनिष्ठ ही हैं, तो प्रश्न ये है कि फिर अन्तर कैसी है इनके बीच!
गौर करने पर आप गुणवत्ता और सुविधा के तर्ज़ पर कई अन्तर गिना सकते हैं। चूंकि मैंने संपूर्ण भारतवर्ष का दर्शन नहीं किया है, अपने परिवेश को देखते हुए जहाँ तक मेरा मानना है कि ये तीनों तबके के विद्यालय और हमारे देश की शिक्षा पद्धति इन अंकुरों को एक अच्छा व्यक्तित्व और जीवन दर्शन की शिक्षा देने में सक्षम व समर्थ होते हुए भी इसके विपरित हैं । 

फिर चाहे वो किसी भी स्तर का विद्यालय हो वहाँ से निकलने वाले अधिकांश किशोरों के मन में पहली उत्कंठा यही होती है कि उनके वयस्क होने पर उनकी व्यवसाय क्या होगी?आमदनी कितनी होगी ? जरा आप सोचें कि खाने में आपको सिर्फ और सिर्फ चावल परोसा जाय क्योंकि आपको कार्बोहाइड्रेट की ज्यादा आवश्यकता है तो क्या आप इससे अपने मानवीय शरीर का पूर्ण विकास पा सकते हैं? मैं तो नहीं मानता। कुछ ऐसा ही है आज के अंकूरों का लालन पालन या सिंचाई। तदोत्परांत वे ना तो सुगम व्यवसाय दे पाते हैं खुद को और ना ही एक अच्छा व्यक्तिव के रूप में उभरते हैं , तो अब बात है कि होनहार निकलते कहाँ से हैं!  बस यह मान लीजिए कि घोंसला चाहे कितना भी सघनता से क्यों न बनाया गया हो उसमे मणि होंगे तो वो दिखेंगे ही फिर वो चाहे घिस के बनें या पीस के बनें।

आप खुद आकलन करें कि जितने भी विषयों कि शिक्षा दी जाती हों स्कूलों में उसके व्यावहारिकता पर गौर किया जाता है क्या? उनकी सार्थकता पर गौर किया जाता है क्या? क्या ये समझा जाता है कि आखिर प्रथम कक्षा में ही बच्चों को पर्यावरण, प्रदूषण, जोड़ना, घटाना, नीतिपरक  कहानियाँ, समान्य ज्ञान के तथ्य आदि क्यों परोसा जा रहा? जो समिति बच्चों के पुस्तकों को तैयार करती हैं उनके उद्देश्य को समझने का प्रयास किया है आपने कभी?
अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि उनमे सिर्फ चावल नहीं परोसा गया है, अगर उत्कृष्टता से उसे प्रयोग में लाया जाय तो उनमें बहुत सारे पोषक तत्व मौजूद हैं।
हालांकि सिर्फ पाठ्यपुस्तक की शिक्षा पद्धति से मैं बिल्कुल असंतुष्ट हूँ पर जिस स्थान पर रहकर मैं सोंच पा रहा हूँ कि कम से कम सुदृढ़ करना तो अपने हाथ में है ।

कैसे हैं आज के पौधे व आधुनिकतम पेड़

बच्चे मस्त होते हैं। डर भी है, लगन भी है, प्रेम भी है, सम्मान भी है, आदर्शवाद भी है, सहनशीलता भी है, तपोमय भी है और साहस  भी है। पर सब में सब नहीं। 

क्या सबमें ये गुण निहित होने चाहिए? अब आप कहेंगे चाहिए तो बहुत कुछ कितना सम्भव हो पाता है! क्यों नहीं हो पाता? कौन है जिम्मेदार? मेरी मानें तो कम से कम बच्चों की तो गलती नहीं हैं।
हसते हुए चेहरे, फुदकते ओंठ, चंचल निगाहें और फुर्तीले शरीर - जैसे मानो नवें ग्रह यही हैं (अपार उर्जावान)। बस कमी है तो इस ऊर्जा के सही दिशाबोध में।

 एक पल को सोचें कि अगर विद्युत का संचार बल्ब और टीवी में नहीं होता तो क्या उसका उपयोग नहीं हो पाता? तब भी हो रहा होता। ऊर्जा व्यर्थ थोड़े जाती है, पढ़ा भी होगा आप सबने की ऊर्जा वो मात्रात्मक गुण है जो निरंतर परिवर्तित होते रहता है, संचारित होते रहता है, जिस मशीन के संपर्क में आता है उसके क्षमतानुसार उसमें अपनी उपयोगिता दर्ज करता है। बिल्कुल तारों में दौड़ते विद्युत की तरह जो दीवार पर लगे बल्ब को भी जलाता है और ट्रेन के इंजन से लगकर उसके इंजन को भी दौड़ाता है। अर्थात बच्चे अपने आप में एक ऊर्जा हैं जिनको हम एक दिशा में रोकना चाहते हैं या उनकी मानसिकता को एक ही उपकरण तक सीमित करना चाहते हैं। 

बच्चों से कब किस तरह का बर्ताव होना चाहिए, कब किस चीज़ से उन्हें अवगत कराना चाहिए, कब किस इंसान से परिचित कराना चाहिए, कब कौन सा साधन मुहैया करानी चाहिए - क्या ये सब हर एक अभिभावक के लिए अध्यन का विषय नहीं है? इन्हीं सब की अज्ञानता का नतीज़ा है कि इन ऊर्जाओं को सही दिशा नहीं दिया जा पाता और बच्चे अतिरिक्त मनोरंजन आदि में संलिप्त होते हैं।


...एक शिक्षक, और सर्वेक्षक के रूप में इन बातों को आपके सम्मुख लाना मेरा कर्तव्य है इसलिए किसी प्रकार की तारीफों की कोई जरूरत नहीं, आए दिन इस तरह के लेख अखबार आदि में छपते रहते हैं, आप चाहें तो समझें नहीं तो परिणाम आपके सम्मुख हैं । गिने चुने पाठकों में से दो चार महानुभाव भी अगर मेरे मन को ध्यान से पढ़ा होगा तो सहृदय धन्यवाद और साथ ही बाल दिवस की स्मृति पूर्ण शुभकामनाएं ।



Friday, October 29, 2021

सावन : एक दुर्लभ दृश्य


के शहर बीच बगीचा हजार देखा है
फक्र हो , गुलजार -ए -शादाब देखा है।
आरजू , ऐतबार , ख़ाब , अर्चना....
भवानी तेरे द्वारे माथे हजार देखा है।

काली घटा, जिसमें छुपा चांद देखा है,
फक्र हो, हुस्न - ए - गुलाब देखा है।
मुस्कान, नजाकत, शराफत, शरारत ...
फक्र हो साहब तूने प्राकृतिक फुहार देखा है।

रंगीन दोपहरी और मदहोश शाम देखा है,
मर्यादा की दामन में प्रेयसी हमार देखा है।
गुफ़्तगू, किलकारियाँ, बेपरवाही, जिम्मेवारियां...
हाँ साहब तूने संगीत ए खास सुना है

परछाई में चाँदनी, पवन में महक पाया है,
फक्र हो, तिरंगा लिए सरहद ए हिंद देखा है।
जुनून , हिम्मत, देशभक्ति, कोप...
साहब तूने आज झलक ए हिन्दोस्तान देखा है।

श्वेत ज़मी पर केशरिया अलंकार देखा है,
धरा के बीच  पुष्पों का क्यार देखा है।
हिफाजत, मोहब्बत, दिवानगी और क्या...
साहब दऊ महीने बाद तूने बसंती खुमार देखा है।

अंगारों के सिरहाने शबनमी बुखार देखा है,
अश्रु की धार, माने रेशमी बौछार देखा है।
हाँ खनक, झनक, महक और क्या...
फक्र हो साहब आपने दुर्लभ झपास देखा है।

Sunday, August 29, 2021

Udte Parinde

Abhi- abhi to mile hain

Do udte hue parinde

Ek dheer dharte- dharte

Ek fikra karte -karte


Wo dhairya tha sneh ka

Aur fikra thi bhavishya ka

Pani mila jalte hue ko

Fikra zinda rah gya h

Abhi - abhi to mile hn

Do udte hue parinde


Aadhar kya us fikra ka

Simta de jo dono ke par

Barsaaat bhi ab ho gyi

Aakash par halka hua na

Bheenge hue dono ke par hain

Fikra saanse le rha hai

Abhi - abhi...

Do udte...


Kahte jisse Ham Aabroo Hain

Jode hue ham dharm se hain

Jaat - paat, rang - vesh

Inpe hi to atke hue hain

Mithya Nahin kya vo Pratishtha

Jo aadhar - e - fikra ban chuka hai

Abhi - abhi...

Do udte...


Ek dharm Mein ek jaat Mein

Ho Milan ek vritti mein

Kitne sahaj the log ve jo 

Ye tajoorve de gaye hain 

Bhul unse ye hui ki

Shodhan nahin batla gaye hain 

Abhi - abhi...

Do udte... 


Ham Yahi bas Sikh liye ki

 unsa hi Ijjat Mile

 ye to dekha hi Nahin ki

 sahjta vo dhampe Nahin the

 Kyon na ye bhi sikh len Ham

 Saral ganit ke kathin prashn hi

 haan Yahi to ban jayen ham.

Abhi - abhi...

Do udte...


kya Nahin Rudhi hue hum 

Bin vichare jee Rahe Hain 

Aarambh hi Na Ho Milan Ka

to Kaise Vividhta Ek Hoye

Baithe Rahen Sab Apne Ghar Mein

To Kaun Gali ko jagmagaye

Abhi - abhi...

Do udte...


Band rakhte Pinjre me 

na to par hi Kat lete 

Kyon Diya Shiksha Agar

Usi Ki chamakk se dar Rahe

 Har Bhavna par Jeet aapki

 to Insan Kaise Huye ham?

Abhi - abhi...

Do udte..



Agraj hain aap Hamesha Rahenge

unch neech behtar hi janenge, 

Kurban Kar den Ham Agar 

bolen ki bachche Kaun hue firr ?

Dwaar dono Hi Khule Hain

Ek aap manen Nahin

 duja hum chunen nahin 

Abhi - abhi.... 

Do udte... 


Maan liya hai ab to ye ki 

Astitva Nahin is Prem ka hai

 char din Ji Le Ham Milkar 

Fir To Dur Jana likha Hai 

Jeet Ke Bhi Kya Milega 

Do Dilon ko cheer ke  

ye bhi Didar Kijiyega 

hm parindon ko janm deke 

Abhi - abhi to mile hain 

Do udte hue parinde

Friday, May 14, 2021

इबादत - ए - इश्क़

 


कहीं दूर से, तेरी खूशबू आयी है।
तेरी गलियों में हूँ , निहारता हुआ।
हर कदम पे, तमन्ना-ए- इश्क़ होगी।
मिले तुम अगर, तो राह - ए - ज़िंदगी आसान होगी।
ग़र ना मिले, तो मंजूर- ए - इश्क़ होगी ।

कहीं दूर पर्वत से, तेरे गीतों की ध्वनि आयी है।
हर पग पे रस बदलें, कुछ यूँ नजाकत है तेरी।
तुम तो तुम हो,स्वाद अपने हैं मेरे।
मिले  तुम अगर तो, महफ़िल मे हम भी होंगे।
ग़र ना मिले ,तो एक महफ़िल हमारी भी होगी।

कि हर कतरा हो वाकिफ़ रग रग से, यूँ रास्ते हैं तुम्हारे।
दीदार तो कसौटी ही है तुझे पाने की ,पाकर क्या देखूँ ?
तेरा यूँ नजरें फ़ेर लेना भी , इम्तिहान- ए -चाहत है हमारी।
मिले तुम अगर तो, हम प्रकाश हो जाएं।
ग़र ना मिले, तो यूँ समझो हम दृश्यमान हो जाएं।

तमन्ना है आलिंगन हो तुम्हारा, और मधुमेह ना ले आए।
बेशक तुम यूँ मिलो इस आटे में की मिष्ठान बन जाएं।
गुलाब ख़्बाब दवा जहर जाम, क्या क्या रक्खा है तुमने सिरहाने में?
मिले तुम अगर साकी, तो हम शराबी न हो जाएं।
ग़र ना मिले, तो हम पूरे शराब न हो जाएं।

छनकती पायल तुम्हारी, चित्तचोर हो ये आम है।
तेरी ही चोरी से खुद को चुराना, तेरा शर्त - ए- आम है।
नियति का साथ, ये तो अचिन्त्य है रे पगली।
मिले तुम अगर, तो  नियत ही पहचान बन जाए।
ग़र ना मिले, तो शख्स नियति की पहचान बन जाए।

तड़प की वेदना, विरह बनके पहुंचें ओ प्यारे। 
त्याग, तप, चाह - ये सब डाकिये हैं हमारे। 
धैर्य की स्याही वक़्त की जमीं पर उकेरें।
मिले तुम अगर, तो पत्र भी पवित्र हो जाए।
ग़र ना मिले, तो प्रेम पत्रकार बन जाए।

रश्म - ए - वफ़ा ही ऐसी है, तुझे पाने की।
कि हर आशिक, समृद्ध हो जाए। 
पाना, खोना तो कर्मों की उपज है सखी। 
मिले तुम अगर, तो बंजर पर स्वर्ण उग आए। 
ग़र ना  मिले, तो भी ये धरती धनवान बन जाए। 

क्या घटा है, तेरी वफ़ा कि ओ रे सखी।
की सबका जीवन, किसानी होने को चाहे।
ताज्जुब! गुड़ का प्रतिवचन शहद के चुंबन से!!
सूर जो मिले तो, हुंकारों की शंखनाद हो उठे।
ग़र ना मिले तो, गन्ने को शहद की माधुर्य मिल जाए।




Saturday, September 19, 2020

चुनाव : प्रचार - प्रसार

 



नए प्रत्याशी जनता को अपनी शक्ल और चिह्न दिखाएं तो थोड़ा समझ आता है, लेकिन वो प्रत्याशी जिन्हें जनता वर्षों से देख रही हैं या देख चुकी हैं, ये मज़ाक लगता है। किसी भले मानुष की आवाज है कि "काम बोलता है" , तो वो बोली प्रचार के लिए कम पड़ गया है क्या जो आपको ऐम्पलीफाइ करना पड़ रहा है? खैर हमनी के का पता हम बुडवक जो हैं।

जब कनिष्ठ कक्षाओं में हुआ करते थे न तो 5-7 महानुभाव चिलचिलाती धूप में नंगे पांव बाहर निकल आते थे इनकी लाउडस्पीकर को सुनकर पता है क्यों, ये पर्ची बांटते थे। पर्ची में अभ्यर्थी का नाम, हांथ जोड़ के खिंचवाया हुआ फोटो, चुनाव चिह्न और नंबर इतना पढ़ करते पैंट के पॉकेट में डाल लेते थे। दूसरी बार जब पर्ची को पढ़ते थे एक लंबी लिस्ट होती थी जिन्हें हमलोग वादे बोलते हैं  और अंत में पढ़ते थे 12500 प्रतियां, 17000 प्रतियां जो कि हरेक प्रति सबसे नीचे होती थी । उस वक्त बस ये सोंचते थे कि अभी पर्ची बांटा जा रहा है, फलाना तारीख को  स्कूल में चुनाव होगा , और हमलोगों की छुट्टी होगी। ना तो उसकी परवाह होती थी कि लिस्ट में क्या हैं और ना ही इसकी की ये लिस्ट ही क्यों हैं?
मनोरंजन तो बच्चों को हर चीज़ में मिल जाता है इसमे भी मिलता था, किसके पास सबसे ज्यादा प्रति है?
आज ये सोचते हैं कि वो हज़ारों प्रतियां उसी तरह से बच्चों को मनोरंजन के लिए बांट दिया करते थे,  खैर एक पल के लिए मान लेते हैं कि प्रतियां मनोरंजन हों कोई बात नहीं लेकिन वो नेता, उनके जोड़े हुए हांथ, इत्यादि सब के सब क्या मनोरंजन ही थे?
जितने वाले तो भूल जाते होंगे कि प्रिंटिंग प्रेस वालों की कितना रुपैया दिए थे, लेकिन हारने वाले को जरूर याद होगा कि ये वास्तव में मनोरंजन पर किया गया व्यय था?
उसकी तो बात ही छोड़िए की क्या होना चाहिए नहीं होना चाहिए जब हम  विधायक बनेंगे तब पूछ लीजियेगा 😁😁। मज़ाक कर रहे थे 😂
  आज वो सिहरी हुई पांव बूथ तक को जाने को तैयार  हैं, लिस्ट आज भी हैँ, क्या बोले नए वाले!!! अरे पन्ने नए हुए हैं वो तो अब भी वही हैं।
लेकिन आज ये उंगली प्रतियाँ जमा करके मनोरंजन नहीं करनेवाली  हैं। ये घिस गए हैं वादे वाले पन्ने गिन गिन के। घिसने से चमक आ गयी है, अरे दिमाग मे भई ।




शनिवार: अंक ७

  आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता ...