बच्चे : भविष्य के नौनिहाल
किसके सामने रोना है, कब हंसना है, किसके सामने खाना के लिए रोना है, किसके सामने घूमने के लिए रोना है वो समझने लगता है। जिसे वो सबसे करीब पाता है उसे अपना मानने लगता है उसकी गोद में वो खुद को सुरक्षित महसूस करता है। वो अपने परिवेश के अवलोकन से ही बोलना, चलना, इशारा करना इत्यादि क्रियाओं को करना सीख लेता है।
किस तरह से एक बच्चा अपने परिवेश का अवलोकन करता है उसको एक उदाहरण से समझने का प्रयास करें - मैं यहां दो अबोध बच्चों की बात करूँगा एक बच्चा है जिसके पिताजी JCB का बिजनेस करते हैं यानी ड्राइवर से चलवाते हैं और जो दूसरा है उसके पिताजी किसान हैं, आप देखेंगे कि पहले का शौक, खिलौना, बातचीत, यहाँ तक कि उसके सपनों में JCB का प्रयोग ज्यादा होगा वहीं दूसरे का शौक, खिलौना, बातचीत और सपनों को देख कर आप किसान से मिलता जुलता व्यक्तित्व की कल्पना अवश्य कर लेंगे।
मेरा यहाँ यह कतई अर्थ नहीं है कि पिता का व्यवसाय ही पुत्र के भविष्य व प्रगति को तय करता है। मेरा तो बस ये मानना है कि जो जिस परिवेश में रहता है उसपर उसके सम-विषम आचरण का आ जाना स्वाभाविक है, प्रकृति की मिसाल है। और उसी परिवेश से निकला हुआ बच्चा अपने बचपन को जीते हुए जब युवावस्था में अपने व्यवसाय का चयन करता है तो उसमे उसके आचरण का विशेष महत्व देखा जा सकता है। अर्थात यह तय करना अनुचित नहीं होगा कि हमारे बच्चे कल के लिए सींचे जा रहे पौधे हैं।
कैसी है सिंचाई
बात अगर स्कूली शिक्षा कि की जाय तो यह कहना सामान्य सी बात है कि हमारा समाज तीन भागों में बंटा हुआ सा दिखाई देता है। ये दृश्य आज नया थोड़े है, आजादी के बाद से ही देखा जाता रहा है। एक वर्ग हैं जिनके बच्चे उच्च दर्जे के प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थि हैं, दूसरा वर्ग हैं जो अपने बच्चों को किसी प्रकार से मध्यम तबके के प्राइवेट स्कूलों में भेजने को विवश हैं और तीसरे वर्ग के अभिभावक अपने बच्चों को निम्न श्रेणी के विद्यालय या बिहार, ऊ. प्र., झारखंड, जैसे राज्यों के सरकारी विद्यालयों में भेज कर अनुपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।
फिर चाहे वो किसी भी स्तर का विद्यालय हो वहाँ से निकलने वाले अधिकांश किशोरों के मन में पहली उत्कंठा यही होती है कि उनके वयस्क होने पर उनकी व्यवसाय क्या होगी?आमदनी कितनी होगी ? जरा आप सोचें कि खाने में आपको सिर्फ और सिर्फ चावल परोसा जाय क्योंकि आपको कार्बोहाइड्रेट की ज्यादा आवश्यकता है तो क्या आप इससे अपने मानवीय शरीर का पूर्ण विकास पा सकते हैं? मैं तो नहीं मानता। कुछ ऐसा ही है आज के अंकूरों का लालन पालन या सिंचाई। तदोत्परांत वे ना तो सुगम व्यवसाय दे पाते हैं खुद को और ना ही एक अच्छा व्यक्तिव के रूप में उभरते हैं , तो अब बात है कि होनहार निकलते कहाँ से हैं! बस यह मान लीजिए कि घोंसला चाहे कितना भी सघनता से क्यों न बनाया गया हो उसमे मणि होंगे तो वो दिखेंगे ही फिर वो चाहे घिस के बनें या पीस के बनें।
कैसे हैं आज के पौधे व आधुनिकतम पेड़
बच्चे मस्त होते हैं। डर भी है, लगन भी है, प्रेम भी है, सम्मान भी है, आदर्शवाद भी है, सहनशीलता भी है, तपोमय भी है और साहस भी है। पर सब में सब नहीं।
एक पल को सोचें कि अगर विद्युत का संचार बल्ब और टीवी में नहीं होता तो क्या उसका उपयोग नहीं हो पाता? तब भी हो रहा होता। ऊर्जा व्यर्थ थोड़े जाती है, पढ़ा भी होगा आप सबने की ऊर्जा वो मात्रात्मक गुण है जो निरंतर परिवर्तित होते रहता है, संचारित होते रहता है, जिस मशीन के संपर्क में आता है उसके क्षमतानुसार उसमें अपनी उपयोगिता दर्ज करता है। बिल्कुल तारों में दौड़ते विद्युत की तरह जो दीवार पर लगे बल्ब को भी जलाता है और ट्रेन के इंजन से लगकर उसके इंजन को भी दौड़ाता है। अर्थात बच्चे अपने आप में एक ऊर्जा हैं जिनको हम एक दिशा में रोकना चाहते हैं या उनकी मानसिकता को एक ही उपकरण तक सीमित करना चाहते हैं।
बच्चों से कब किस तरह का बर्ताव होना चाहिए, कब किस चीज़ से उन्हें अवगत कराना चाहिए, कब किस इंसान से परिचित कराना चाहिए, कब कौन सा साधन मुहैया करानी चाहिए - क्या ये सब हर एक अभिभावक के लिए अध्यन का विषय नहीं है? इन्हीं सब की अज्ञानता का नतीज़ा है कि इन ऊर्जाओं को सही दिशा नहीं दिया जा पाता और बच्चे अतिरिक्त मनोरंजन आदि में संलिप्त होते हैं।