लास्ट पेज ऑफ द् कॉपी
कॉपी का लास्ट पेज हमेशा इसी ख्याल में रहता होगा कि ना तो बेचारे की लाइफ का कोई पता है और ना ही इसका पता है कि कब कौन क्या लिख कर चला जाए। पीछे वाली कूट से चिपके उस पेपर को यह भी पता नहीं होता कि कब कहां पटका जाएगा या कब बारिश की पानी में डूब जाएगा। परंतु हमेशा इस आत्मविश्वास के साथ जिता है कि लेखक इसके मदद के बिना किसी साफ-सुथरे पेज को नहीं भर सकता।जब कभी कोई कलम नहीं चल रहा हो झट से पीछे वाले पेज पर रगड़ देते हैं। न फटने की परवाह और ना ही गंदा होने का डर। जब भी कोई मामूली सा फार्मूला लिखना हो या कोई छोटी सी कैलकुलेशन करना हो तो झट से आखिरी पेज पर ही हमारी उंगलियां दौड़ जाती है। जब कभी किसी ने थोड़ा सा पेपर मांग लिया तो आखिरी पेज का बलिदान देने में जरा सा भी नहीं सकुचाते। जब कभी गुनगुनाने का मन कर रहा हो या बेवजह भी एक कलम आखिरी पेज को ही अपना साथी बना लेता है।
इन्हीं ख्यालों के साथ एक दिन जब पुरानी कॉपियों के लास्ट पेज को निहारना शुरू किया तो यह दिल खुशी से झूम उठा सारी बातें एक साथ याद आने लगी।
कहीं घर की सामग्री के फटे हुए लिस्ट, कहीं बेमतलब की शायरियां, कहीं-कहीं 8-10 सिग्नेचर जो कि महानुभावों ने बेमतलब घसीट दिए थे, कहीं कुछ अटपटे सवाल और कहीं- कहीं संस्कृत के कुछ हलंत विसर्ग।
मेरे खयाल से तो आखिरी पेज जितना इंट्रेस्टिंग कॉपी का कोई और पेज ही नहीं होता क्योंकि इस पेज के ऊपर ना तो VVI का मुहर होता है और ना कि किसी होमवर्क का।
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