Tuesday, October 29, 2024
Monday, September 2, 2024
शनिवार: अंक ७
आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता है जिसकी हरेक कृति सुखदायक होती जाती है।
कबीरदास जी कहते हैं की ~
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
पर दृश्य यह है आज की सुख तो सुख है कई दफा हम दुख में भी अपने धर्म और धार्मिकता को छोड़ कर पश्चिमी संस्कृतियों के नुस्खे सर्च करते हुए दिखते हैं।
और विडंबना देखिए कि जो पश्चिमी देश हैं, वह हमारी संस्कृति को अपनाते जा रहे हैं। आज मैथिली ठाकुर ब्रिटेन में सभा करती हैं। प्रेमानंद जी को लाखों विदेशी सुन रहे हैं।
गीता दर्जनों देश पढ़ रही है। वहां आज आयुर्वेद , योग, गीता, रामचरितमानस इत्यादि ना जाने कितने भारतीय सभ्यताओं ओर संस्कृतियों को विदेशों में ले जाकर प्रसारित किया जा रहा है और हम अपने अपने घर की चीजों का कद्र करना भूलते जा रहे हैं। ,
सच ही कहा था कबीर दास जी ने की बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर, कैसे हम विश्व गुरु बनेंगे? खुद हम उसे चीज का पालन नहीं कर रहे हैं और हम विश्व गुरु बनने का सपना किस आधार पर देख सकते हैं। बिल्कुल नहीं ,कतई हम विश्व गुरु नहीं बन सकते हैं । जबतक स्व को ,अपने मूल को मजबूत अगर न कर सकते तो हमारे सपने बेबुनियाद हैं।
हाल ही में हम जन्माष्टमी मनाए। बेशक ये त्योहार हमारे जीवन में रंग भरने को आते हैं। हम इसके दर्शन से रंगीन हो जाएं इतना तो पशु भी करते हैं। जैसे वर्षा हुई, कौआ नहा लिया। पर क्या इंसान होना कौआ होने जितना ही है या कुछ वृहद है कुछ अधिक समृद्धता है? मुझे लगता है की तमाम पर्व त्योहारों से खुद को जब हम रंग लेते है तो वह वाकई हर्षोल्लास का दुर्लभ कालखंड बन जाता है। पर अगर हम अपनी मानसिक, कार्मिक, वाचनिक तीनों ऊर्जाओं को उन रंगों की सजीवता को बनाए रखने में खर्च करें तो शायद ये अमरत्व को प्राप्त करने की राह पर निकल पड़े।
जी हां, भागवत गीता के बिना मैं भगवान कृष्ण की पूजा अधूरी मानता हूं। भक्ति को मैं प्रेम के बिना या प्रेम को भक्ति के बिना कल्पित नहीं कर सकता। पर मुझे ये लगता है की अब द्वापर युग नहीं चल रहा है इस घोर कलयुग में सिर्फ प्रेम में अंधे होकर भक्ती करने से कृष्ण नहीं आएंगे इसलिए हरेक द्रौपदी को शस्त्र उठाना चाहिए।
शस्त्र का अर्थ हाथियार से कतई नही है। हम एक लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं। संविधान ही हमारा वो शस्त्र है जो हमें कृष्ण के चक्र और श्रीराम के गांडीव की ताकत प्रदान कर सकता है।
हमारा देश में एक ऐसा वर्ग है जो अलग ही प्रकार की रूढ़िवादी और असंगत विचार में जी रहा है। एक अलग ही विचारधारा चल रही है।दसवीं कक्षा में दो ऑप्शन होते हैं। एक होता है संस्कृत, दूसरा होता है कंप्यूटर । अभी तक इतना ही जानते हैं बहुत सारे लोग । उसमें से कंप्यूटर जो है सीबीएसई वालों के लिए और आईसीएसई बोर्ड वालों के लिए आम भाषा बन चुकी है। मैं भी इसका सम्मान करता हूं और बच्चों को रिकमेंड भी करता हूं कि वे कंप्यूटर चुनें क्योंकि यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है।
लेकिन इसी बीच मैंने ये देखा की लोग संस्कृत को कंप्यूटर के सामने तुच्छ मानते हैं। कई बार तो लोग यह तक कह डालते हैं की बाबा बनेगा क्या? अब उन्हीं से अगर पुछ लो की बाबा क्या होता है या बाबा बनना गलत है क्या, तो उनका चेहरा लाल हो जता है वो सकदम हो जाते हैं। भले वो खुल के न बोल पाएं पर अंदर का भाव यही होता है की संस्कृत तो पूजा पाठ की भाषा है, यह तो पौराणिक भाषा है, इसे पढ़कर क्या हो सकता है, संस्कृत बोल के हम अपने बच्चो को मॉडर्न कैसे बना पाएंगे, हम स्मार्ट बॉय या स्मार्ट गर्ल कैसे बना पाएंगे? अरे महराज! जरा रुकिए।
और जिस कंप्यूटर के सामने आप संस्कृत को तुच्छ समझ रहें हैं उसी कंप्यूटर से आप संस्कृत की मह्तता को पुछ लीजिए। आपके ज्ञानचक्षु खुल जायंेगे।
जरा सोंचिये की जिस संस्कृति का इतिहास बताता है कि संस्कृत बोलचाल की भाषा थी, उसको सिर्फ आप पूजा पाठ तक सीमित कर चुके हैं। दसवीं कक्षा का विद्यार्थी एक संस्कृत भाषा लेता है तो आप उसको समझते हैं कि वह तो बाबा बन जाएगा, वो तो पंडित बन जाएगा। ब्राह्मण बनने के लिए पढ़ रहा है तो । जरा सोचिए कि क्या संस्कृत सिर्फ ब्राह्मणों की भाषा है या आम जनमानस की भाषा है।
आपकोकोई अगर गीता पढ़ना हुआ, भागवत पढ़ता हुआ ,कोई रामचरितमानस पढ़ता हुआ देख ले तो कहेगा ये तो बाबा बन रहा है इत्यादि। जरा सोचिए कि एकतरफ आप रामायण और महाभारत के सैकड़ों एपिसोड देख लेते हैं पर चार चौपाई, दो दोहे और छह छंद सुनाने को कहे जाएं तो शायद अवाक रह जायंेगे। इससे यह प्रमाणित होता है की हम राम, कृष्ण, और उनकी यश गायन या रामायण महाभारत को सिर्फ मनोरंजन तक सीमित कार के रख चुके हैं जिसे पश्चिमी सभ्यता एंटरटेनमेंट कहती है।
आज के हमउम्र युवा लोग हैं । गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड का जो संबंध चलता है आप जरा सा देखिए । मान लेते हैं कि कोई गर्लफ्रेंड है हमारी और हमने उसको गीता का उपदेश सुना दिया। रामायण की चौपाइयां सुना दी तो कहेंगे कि यह क्या सुनना शुरू कर दिया हमको बाबा नहीं बनना है। अरे मैडम बताओ तो सही की ये बाबा होते कौन हैं और हम अगर बन जाएं बाबा तो क्या कोई जुर्म है या तुम्हारे बॉयफ्रेंड होने के कसौटी से बर्खास्त हो जायंेगे? क्यों भई जिस धर्म ने हमे २५ साल का शंकराचार्य दिया, लवकुश दिया, नचिकेता दिया, गार्गी दिए, सावित्री दिया क्या ये सब ८० वर्ष के बूढ़े होने के बाद बाबा कहलाए थे?
कुछ लोग यहां पर कहने आ जाएंगे की हर चीज का उम्र होता है। अब ये सही उम्र कब आएगा बताओ तो कोई मुझे।
अगर युवावस्था में गीता न पढ़ा तो बुढ़ापा में पढ़ूंगा? तो तुम्ही बताओ की अप्लाई कब करूंगा? कब उसका अप्लाई कब कर पाऊंगा। युवा साथी, महिला या पुरुष लोग कहेंगे कि अभी तो हम जवान हैं न ,जवानी का जोश है। जवानी का जोश में तो हमको रोमांटिक बातें करनी चाहिए। तो ओ दीदी या प्यारे चचा गीता से ज्यादा रोमांटिक चीज तो कुछ है ही नहीं, आपके पूरे लाइफ का रोमांस देता है वो। किस स्वप्न में हैं आप, हैलो!!आ
हम अपने आसपास के लोगों से कहना चाहते हैं की बार ध्यान दें की वे किस तरह के विचारों को मान रहे हैं और किन्हें नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। जैसा आप चाहेंगे, वैसा ही आपके आसपास का माहौल भी बन जाएगा। जैसे आप यूट्यूब पर जिस तरह के चैनलों को सब्सक्राइब करते हैं, आपको उन्हीं से संबंधित नोटिफिकेशन और रिमाइंडर प्राप्त होते हैं। उसी तरह, हम जैसे समाज में रह रहे हैं, हमने अपने चारों ओर अपनी पसंद के लोगों का एक घेरा बना लिया है। तो जब हमें यह स्वतंत्रता है की हम किसे अपने जीवन में शामिल करना चाहते हैं, किससे संवाद करना चाहते हैं, तो क्यों न हम अपने जीवन को बेहतर बनाने वाली चीजों को अपने आस-पास रखें?
क्यों न हम अपने जीवन को उत्तम बनाने के लिए ऐसे विचारों को अपनाएं जो हमें उच्चता की ओर ले जाएं? हम श्री राम, श्री कृष्ण, माता रानी, मां दुर्गा, या सावित्री जैसे आदर्श क्यों नहीं बन सकते? क्यों नहीं? अगर हम चाहेंगे तो निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है क्योंकि हमारे भीतर वह शक्ति है जो हमें भगवान बना सकती है। हमारा धर्म सिखाता है कि कण-कण में भगवान है। तो जब कण-कण में भगवान है, तो इंसान में भगवान क्यों नहीं हो सकता? भगवान होना सिर्फ प्रतिमाओं की पूजा करना नहीं है, बल्कि प्रतिमाओं से प्रेरणा लेना है, उनके गुणों को अपनाना है, और उसी राह पर चलना है। यह सही मायने में सनातनी होने का प्रतीक है।
हाल ही में हमारे देश के विभिन्न इलाकों में, खासकर चौक-चौराहों पर, मटकी फोड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इस प्रतियोगिता को देखकर आप समझ सकते हैं कि इसमें कितनी अद्भुत एकता दिखाई देती है। 20-25 लोग मिलकर एक जमीन पर खड़े होते हैं और एक-एक करके ऊपर की ओर चढ़ते हैं, जिससे एक मानव पिरामिड बनता है। अंततः, सबसे ऊपर पहुंचकर एक व्यक्ति मटकी फोड़ता है, और मटकी का जल सब पर समान रूप से बरसता है। इस दृश्य में खुशी और उत्साह का अद्वितीय मिश्रण होता है।
जरा सोचिए, 20-25 लोगों की यह मंडली, जो मटकी तक पहुंचने की कोशिश में बार-बार लड़खड़ाती है, संतुलन बिगड़ने के बावजूद भी बार-बार प्रयास करती है। कितनी बार वे गिरते हैं, फिर उठते हैं, और फिर से प्रयास करते हैं। लेकिन अंत में, मटकी फूटती ही है और सब पर जल बरसता ही है।
मटकी फोड़ प्रतियोगिता से बड़ा एकता का उदाहरण शायद ही कहीं और देखने को मिले। कितनी बार इस प्रयास में लोग गिरते हैं, संतुलन खोते हैं, लेकिन एक-दूसरे का हाथ थामते हैं, मजबूती देते हैं, और अंततः मटकी फोड़कर ही दम लेते हैं। यह त्यौहार और खासकर यह प्रतियोगिता, हमें सिखाती है कि संघर्ष, सहयोग, और एकता से हम किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इसे समझने और जीवन में उतारने की जरूरत है।
Saturday, August 24, 2024
शनिवार: अंक ६
ये और बात है की हरेक पहलू के कई कई आयाम होते हैं पर अगर आपको पूरा ब्रह्मांड का भी दर्शन करना है अगर तो एक निश्चित समय बिंदु पर किसी एक ही बिंदु को जिएं तो आपका दर्शन शायद समर्पित कहलाएगा अन्यथा हरेक ५ सेकेंड में शॉर्ट वीडियो के स्लाइड्स बदलने से न तो आप दर्शन कर पाइएगा और न ही उस दर्शन का दर्शन समझ पाइएगा।
खैर हम कहां भटक गए...
अगर आपने अपने श्रवण इंद्रियों का बेहतर प्रयोग किया हो तो पिछले वीडियो में आपको दो ध्वनि अवश्य सुनाई दिया होगा, नहीं सुने अगर तो अब भी इयरफोन लगा के आंख बंद कर लीजिए। इन दो ध्वनियों में एक ध्वनि की फ्रीक्वेंसी दूसरे की अपेक्षा अधिक जान पड़ती है। अंतर मामूली नहीं है। ज्यादा फ्रीक्वेंसी वाली ध्वनि बारिश की बूंदों का एल्वेस्टर की छत से सीधा संपर्क करने से हुआ है। और दूसरी ध्वनि उन जलकणों के अल्वेस्टर से संपर्क के बाद ओहारी से टपकने की ध्वनि है। इसके अलावा आप और भी बहुत कुछ देख सुन या दर्शन कर सकते हैं इस वीडियो क्लिप से।
एक बात अगर आपसब के साथ साझा करूं तो ये कहना चाहता हुं कि आज हमारे जीवन में ठहराव बहुत निम्न स्तर पर आ चुका है। मैंने, हमारे शब्द का जिक्र किया है, आप मुझे खुद से भिन्न समझने की नासमझी बिलकुल भी न करें। आप भी इस पर सोचें कि आपके जीवन में आप कितना भाग भाग के जी रहे हैं और कितना ठहर ठहर के।
हो सकता है की मैं यहां धारा बदल दूं तो आप असहज हो जाएं पर क्या है की इस विशेष लिखावट की प्रकृति मुझे एक खास धारा पर विशेष बात चीत की इजाजत नहीं देता है। आप कहेंगे की अभी अभी ठहर के जीने की बात कह रहे थे अभी खुद भागने लग गए। तो मेरा इसपर यह कतई राय नहीं है की आप एक जगह विशेष पर ठहर ही जाएं। यूं तो ठहर जाएं तो शायद कुछ विशेष ही प्राप्त कर लौटेंगे पर अगर उतना नहीं तो इतना ही ठहर जाइए।
आज भादो कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि है, परसों जन्माष्टमी है। सावन गए आज ५ दिन बीत गया है। मधुमास कहे जाने की खासियत लिए ये सावन न जाने कितने कांवरियों का जल भालेनाथ को अर्पित करा दिया। अर्धवृद्ध सज्जन, उनसे कम उम्र वाले अधेड़, और कुछ हमउम्र भी, बाबा के यहां से होकर आ गए।
लोग कहते हैं कि शिव समा रहे मुझमें और में शून्य हो रहा हूं। भाई आर्यभट्ट की भी शायद गणित में ५४ प्रतिशत आएगा अगर इसकी प्रामाणिकता मांग लो। न तो आप खुद ही देख लो, कोलकाता केश में कपिल सिब्बल और तुषार मेहता जी का क्या वकालत चल रही है। रक्षाबंधन बीता, पूर्णिमा को। राखी खुल गए होंगे ६६ नहीं अब अपडेट करके ६८ प्रतिशत युवाओं से भरे इस देश के रक्षाबंधित युवाओं की कलाई से। और न भी खुला होगा गिने चुने लोगों का तो क्या प्रमाण की उस राखी के मोतियों को गिनने भर का भी समय हो उनके पास।
रेडियो के १००.५ मेगा हर्ट्ज पर हर घंटे के समाचार देने के बाद अगर कैफ़ी आज़मी और लता मंगेशकर की कोई ऐसी गीत बज जाए ~
शब-ए-इंतज़ार आखिर, शब-ए-इंतज़ार
आखिर कभी होगी मुक़्तसर भी,
कभी होगी मुक़्तसर भी
ये चिराग़ ये चिराग़ बुझ रहे हैं,
ये चिराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते जलते,
मेरे साथ जलते जलते ये चिराग़ बुझ रहे हैं,
ये चिराग़ बुझ रहे हैं - (३) मेरे साथ जलते जलते, मेरे साथ जलते जलते यूँही कोई मिल गया था, यूँही कोई मिल गया था सर-ए-राह चलते चलते, सर-ए-राह चलते चलते ...
~ तो रेडियो पर दूसरी फ्रीक्वेंसी लगाने या रेडियो को बंद करने से पहले जरा रुकिए इयरफोन को ठीक से एडजस्ट करके आवाज थोड़ा धीरे कीजिए और आंखे बंद करके ४~६ मिनट सुन के तो देखिए फिर बड़े बड़े स्क्रीन पर घंटों रील्स देखने से ज्यादा सुख न मिले तो कहिएगा।
थोड़ा उत्तर मोड़ते हैं अब धारा तो ये सुनिए
~ किय बालक तुहूं पंथ भुलल किय तू अइल कुराह जी
अरे नाही नागिन हम पंथ भुलल ना हम अइनी कुराह जी
अरे चाहूं तो अभी नाग नाथू गलिए गलिये डोरीआबूं जी ...
खेलत गेंद गिरी जमुना जी में कृष्ण जी कूदी पड़े।
अरे खेलत गेंद गिरी जमुना जी में कृष्ण जी कूदी पड़े।
इसी से मिलती जुलती एक और कृति पढ़िए
लडिका है गोपाल लड़िका है गोपाल ,कूदी पड़े जमुना में
लडि़का है गोपाल... कूदी पड़े जमुना में
अरे जमुना में कूदे काली नाग नाथे
फन पर हुअए सवार, कूदी पड़े जमुना में
लडिका है गोपाल।
आपकी उद्दंडता तब बाहर आती है जब आप सक्षम हों पर आपकी उद्दंडता तब ही अच्छी लगती है जब वो सार्थक हो उच्च उद्देश्य के लिए और निस्वार्थ किया गया हो।
स्त्रीषु नर्म विवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसङ्कटे। गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सितम् ॥
अर्थात: स्त्री को प्रसन्न करने के लिए
हास-परिहास में
विवाह में
किसी कन्या की प्रशंसा में
आजीविका की रक्षा के लिए
प्राणसंकट उपस्थित होने पर
गौ और ब्राह्मण की रक्षा के लिए
किसी को मृत्यु से बचाने के लिए
~ इन विषयों में झुठ बोलना अच्छा माना हुआ है।
जरा सोंचिये की गइयों से अगाध प्रेम करने वाले कृष्ण , भोलेनाथ के गले में विराजमान वासुकी को प्रणाम करने वाले कृष्ण , कालिया के फन पर नृत्य करते हुए ही अच्छे लगते हैं। और जिस जीवन काल में वो नृत्य करते हैं वो हमें असाधारण लगता है पर जीवन की वास्तविकता से अगर मिला कर देखें तो आज भी के बच्चों में भी वो उत्साह पूर्ण मात्रा में दिखाई पड़ते हैं पर बात है की उनको एक जामवंत चाहिए जो उनके अंदर के हनुमान को जगा सके। उनकी गलती पर हतोत्साहित नहीं बल्कि एक संतुलित संस्कार देकर उसे ज्ञान दे सके।
~तो चलिए अब थोड़ी देर होने को है कमल सत्यार्थी जी की ४ पंक्तियां अपने जीवन में उतारने को पढ़िए ~
बल पौरुष घुड़दौड़ यहां है
समर सतत आराम कहां है
बाजी लगी हुई है पगले
फेंक विजय के दांव मुसाफिर
छोड़ पेड़ की छांव
मुसाफिर ,छोड़ पेड़ की छांव
दो और पढ़े लीजिए ...
देख दुपहरी ढलती जाती
छाया रूप बदलती जाती
सूरज घूम चला पश्चिम में
बहुत दूर है गांव मुसाफिर
छोड़ पेड़ की छांव मुसाफिर, छोड़ पेड़ की छांव।
Sunday, August 18, 2024
Saturday, July 20, 2024
बिहार का राजनैतिक चित्रण : कुमार पवन
आप गंगा के घाट पर इस स्थिति में हैं, जिसमें आपका एक पैर नदी के अरार पर और दूसरा पैर नदी के दलदल में है। लोग गहरे पानी में न चल जाएं उससे बचाव के लिए बांस की घेराबंदी की गई है। आप एक पैर अरार पर रखे हुए बंस को थामे खड़े हैं। बांस में बहुत लोच है क्योंकि बहुत बजन पड़ रहा है। बांस छोड़ नहीं पा रहे हैं और अरार के पैर को इतनी मजबूती मिल नहीं पा रही है कि खुद को उबार सकें और न ही ये हो रहा है कि बांस और अरार के पैर उखड़ जाएं और हम डूब जाएं। बड़ी असमंजस की स्थिति है और ऐसा ही जीवन कट रहा है।
जिस बांस को पकड़े हैं उसपर भरोसा है भी और डर भी है कि का पता कब छूटे और हम धड़ाम से गिरें। ये गंगा का किनारा है कभी तो धारा शांत रहती है कभी उफान आती है, कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि कोई भारी चीज़ पैर में आ फंसी है। डरती हुई आँखें देखती है तो वो कोई शब होता है। हृदय व्याकुल होता है। जिया डेरा जाता है । फिर से हनुमान चालीसा पढ़ते हैं और सांसें गिन-गिन के काट रहे हैं।
ऐसे में कोई नई बांस दे रहा है ऊपर से। ये बांस हरी हरी लगती है। क्या करें उलझन है। सूखे बांस को छोड़ के नया वाला पकड़ें या जैसे हैं वैसे ही हनुमान चालीसा पढ़ते रहें । पुरानी वाली लोच खा के भी टाने हुए है, कइयों को छोड़ भी चुका है जिनके शब पैरों से लग रहे थे। डर भी लगता है कि कहीं छोड़ने पकड़ने में ऐसा न हो कि बैलेंस खराब हो और हम ससर के गंगा माई को पियरी के जगह खुद को चढ़ा दे जाएं।
खड़े-खड़े सोच रहे थे कि ये बूढ़ा बांस भी हरा ही आया था एक दिन और इसको पकड़ने के लिए भी जोखिम लेना पड़ा था। फिर बांस को धूप - वर्षा लगती गई, पक गया, अब सुख गया है। जब पिछले को छोड़ के रिस्क लेके इसको पकड़े थे तो यही लगता था कि शायद ये दूसरे पैर को ऊपर खींच पाएगा और जहां से इसके मालिक बांस लगा रहे हैं अपने पास तक ले आएंगे हमारी भी जिंदगी बच पाएंगी, पर कहां ऐसा हो पाया है, बांस बदल गया पर हम उसी अर्ध दलदली स्थिति में रह गए।
अब नया बांस आया है, क्या करें पकड़ें या पुराने भरोसे की तरह टूट जाएगा ये सोंच कर छोड़ दे जाएं। क्या करें? हम जनता हैं बांस बाले जनार्दन कहते हैं सोचते हैं जनार्दन रहे होते तो ऐसे दलदल में होते, गाली लगती है जनार्दन शब्द खुद के लिए। डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो कि ये नया बांस मिडिल स्कूल बाले मास्टर साहब वाली कनैली न निकले जो 5-10 पीठ पर पटकाने के खराब चर्मरा जाती थी। क्या पता देखने में तो मजबूत लगती है पर क्या पता वजन संभाल पायेगी या बूढ़े से भी कामजोर साबित होगी।
खैर ये बात तो तय है कि रिस्क तो पिछली बार भी लिया था। हिम्मत और दम रखना तो आदत ही बन गई। एक मन करता है कि छोड़-छाड़ के साथ कूद जाएं जय गंगा मैया की ,बोल के । दूसरा कहता है कि कहीं ऐसा भी हो सकता है कि गंगा के नीचे कोई बांस मिले जो शिव जी का कंधा हो।
असमंजस तो है ही, स्थिति से संतुष्ट हैं नहीं तो मन कर रहा है कि ले लें जोखिम। क्योंकि केतनो कामजोर बांस रहेगा तो चौठारी तक मड़वा तान लेगा और वियाह के नेग पूरा हो जाएगा। ऐसे भी तो मरेंगे ऐसे ही मरेंगे। और कहीं शिव जी का कंधा निकल गया गलती से तो बाल बच्चे को आशीर्वाद प्राप्त हो जाएगा।
जय गंगा मैया। जय भोलेनाथ।
२० जुलाई २०२४
Saturday, July 13, 2024
फुल्लकुसुमित 🇮🇳
पद्म यानि कमल जो भारत का राष्ट्रीय पुष्प है,
और भूषण यानि किसी संज्ञा की शोभा
इस प्रकार मेरे अनुसार
भारत में पद्मभूषण का अर्थ हुआ एक ऐसा पद्म रूपी व्यक्तित्व जो हमारे राष्ट्र को आभूषित कर रहा है ।
तमाम पद्मों से सुशोभित मां भारती की गोद में अपनी क्रीड़ा से उनकी साड़ी को मटमैली करती हुई एक बाल वृद्धा , जी हां बाल वृद्धा से मिलना हो तो आप इनसे मिलिए, इनको पढ़िए, देखिए ,सुनिए और इन सबसे महत्वपूर्ण आप इनको अपनाइए।
और अपने आप को भारतीयता से अवगत कराते हुए इस कालखंड के साक्षी बनने का अधिकार प्राप्त करें।
Friday, March 1, 2024
ऐरावत सा शांत और जोशपुर्ण सुबह, रथ के चार घोड़ों सी दौड़ती दोपहर और हल जोत के लौटे वृषभ के जैसी शाम का जीवन का आनंद लेने के पश्चात जो कुछ ऊर्जा शेष रह जाती है उसे हम सम्पूर्ण दिन का लाभांश की संज्ञा दें तो शायद सार्थक मानी जायेगी। उन्हीं के क्षमता से बोई गई फसल को देख रेख करते हुए आंखें लग जाना किसी नवयुवक के लिए श्रद्धा और संतुष्टि का वो दुर्लभ कालखंड होता है जिसकी तलाश वो ऐरावत, अश्व और वृषभ के रुप में कर रहा था।
नींद की हसीन गोद में मुस्कुराते हुए अंधेरी रात को जीने से बढ़कर क्या रक्खा है इस जहां में? जिसमें बिन खर्चा बिन पानी आप गगनयान के पायलट और कंचनजंघा के कल्पना चावला हो जाते हों। कुछ यूं हीं था दर दर भटकता हुआ की देखा तो बस देखता रह गया। क्या? पांव थमे,नजरें मिलीं, रोएं खड़े हुए, सकपकाए, ओंठ कांपे और क्या? अश्व के पैर, ऐरावत के जिगर, ओर वृषभ की तेज धड़कनें , जो देखा तो बस देखता रह गया। देखा क्या? अरे जैसे आंखों में रंग, होठ पे बांसुरी, पांव में पायल, मंदिर की घंटी, ओर जाने क्या क्या एकसाथ झनझनाये। अच्छा! पर ऐसा क्या देखा
सुनो क्या देखा सो
तेरी गलियों से था मैं गुजरता हुआ
चंद चौबीस चौपाईयां चबाता हुआ
खिली थी नजरें, धड़कन भी तेज
मंद थे स्वर पर थे गाते हुए
इक बार हुआ ये की, बस हो ही गया
ये नजरें उठीं और फिर टिक ही गईं
देखता रह गया पांव का वह जमीन
की हुआ आखिर क्या की वो आए नहीं
तेज आखों का और शोर धड़कन का भी
किया जो था दीदार वो लिखता हूं मैं
शेष जो है सियाही कलम शेष में
कोरी कागज के आंचल में रखता हूं मैं
शांत था पल और दुनिया रुकी
रुक गई थीं काली मंदिर की घड़ी
हवा भी था सहसा हीं थम सा गया
बस थी एक ही धातु चालक भेष में
थे बाकी यूं रात्रि की शयन गोद में
ये धातु जो थी उसको देखती हुई
अपने में उसको समाई हुई
थी प्रातः की संध्या सी वो गोधूली
बिजली सी आई, झटका वो दी
मुस्कुराई, मुस्कुरा के आघात कर आई
फिर चली गई
मैं! मैं तो देखा जो बस देखता रह गया
आते देखा, रुकते देखा,जाते देखा
और ,और तमाम दृश्य को
शादाब होते देखा।
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बचपन की वो यादें... सुबह में खाना खाते – खाते या कभी उस से पहले 5-6 लोगों की एक टोली,कुछ सहपाठी...
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