Saturday, May 24, 2025

पगडंडियां




 मिल जायेगा कारवां अरे ओ रह गुजर 

गांव का बरगद और पगडंडियां संभाल रखना 


ढलेंगी उम्र तमाम और बनेंगे नवीन दरख्त 

लंगोट बांधते वक्त लंगोटिया यार याद करना 


लाख तुम उड़ जाना हवाई जहाज में पर 

साइकिल का चैन चढ़ाना याद रखना 


रॉकेट बना लो भले तुम अपने विवेक से 

पर गांवों वाले मास्टर साहब का पहाड़ा संभाल रखना 


घूम लो घुमारी ये गोल दुनिया की 

मां की आंचल का सिरहन संभाल रखना 


मिठाईयां, पकवान और न जानें क्या क्या 

पर उम्र भर दाल भात चोखा याद रखना 


लाख कर लेना तुम दोस्ती यूहीं राह चलते चलते 

स्कूल की छुट्टी में निकलते वक्त उस कंधे का भार याद रखना। 


अक्सर चाहने लगेंगे  लोग ,  तेरे काबिलियत और दौलत देखकर 

रुपए जोड़कर वो बैडमिंटन और लूडो खरीदना याद रखना। 


लगने लगेगा तुम्हें गर कभी की बड़े उलझ से गए हो ज़िन्दगी में

 तो दस अंकों के नंबर मिलाना और सारी अनकही उलझन  उड़ेल आना 



बड़े मशहूर शायर की शायरी  या दुनिया की बेहतरीन थियेटर में भी 

गर कभी सूना सूना सा लगे 

तो मिलना उसी बाजार में और दो चार फूहड़ किलकारियां याद कर आना 




जब किसी बड़े होटल में हजारों का खाना खाकर भी लगे की संतोष न हुआ 

तो साथ बैठकर एक ही थाली में खिचड़ी खाना याद करना। 



वो क्या है न कि तुम थोड़े स्वार्थी होने लगोगे उम्र ढलेगी तब, बाल बच्चों के खातिर 

सुनो, उन बेकसूर बच्चों की परवरिश करने के लिए उनका मुझ से रिश्ता न तौल देना 


रात में दिन की तरह उजाला में रहोगे तुम रहते भी होगे 

पर अंधरिया में खटिया पर लेटकर आसमान निहारना याद रखना । 


जूते पहन पहन कर जब थक जाओ तुम दिन भर ऑफिस के मैन्युअल में 

आइसक्रीम के लिए नंगे पैर दौड़ जाते थे तुम दहकती गली में, याद रखना। 


मेट्रो की रफ्तार में भी जब तुम्हें देर होने का डर सताने लगे 

तो 10 किलोमीटर के लिए 2 घंटे टमटम पर चढ़ना याद करना 


ये मेले में आसमानी झूला अवश्य झूलना तुम बड़े शौक से

पर भूसे भरे बैलगाड़ी पर दोस्तों  के साथ उछलना याद रखना। 


AC की ठंडक और इनवर्टर की लत में गर कभी चार छह घंटे बिजली चली जाए 

तो रात रात भर ताड़ के पंखे झलकर जो हाथ तुम्हें सुलाया करती थीं याद करना 


एकाध किलोमीटर पैदल चलकर जब तुम थकने लगो 

तो चार चार कोश तक बाबा की उंगली पकड़कर घंटों चलना याद रखना 





पुरानी चीज से सुने हैं कि ऊब जाया करते हैं लोग, 

मिलना तू उसी मोड़ पे मुझे 

हर शय जहां हसीन थी, जहां हम तुम थे अजनवी 



ये इक्कीसवीं बाईसवीं सदी की चकाचौंध में जब तुम्हें हाइपरटेंशन सताने लगे 

तो बैठना किसी शाम और प्रेमचंद, रेणु और दिनकर से मिल आना।


















By Kumar Pavan (KP)

आत्म दीपो भव:~ बुद्ध

 अब के दशक में सोशल मीडिया हमारा वो प्रदर्शनी बन चुका है जहां पर हम अधिकांशतः अपने उन एस्पेक्ट्स को दिखाते हैं जो हमारे जीवन का सबसे उज्ज्वल होता है, या कुछ मायनों में हम अपने असलियत को छुपाते हुए  खुद को खुश इत्यादि दिखाने का प्रयास कर रहे होते हैं।

 अब ऐसे में जो दर्शकगण हैं उनपर यह निर्भर करता है कि वो कितना अपने ज्ञानेंद्रियों का इस्तेमाल करते हैं और कितना अपने समझ का। 

यकीन मानें चाहे कितनी भी खूबसूरत नायिका हों उनकी सौंदर्य को जीवित रखने के लिए चुकाई गई कीमत हम समझ नहीं पाते कुछ क्षण को हमें लगता है कि सिर्फ़ हम ही हैं वो जो परेशानी में हैं और बाकी दुनिया तो हसीन है। क्या आप जानते हैं या ध्यान रख पाते हैं कि बहुत सारी नायिकाएं पता नहीं कितने साल तक तो मनपसंद व्यंजन नहीं खा पाती हैं डाइटिंग के चक्कर में, दर्जनों ऑपरेशन हो सकता है उनके नाक नक्श को ठीक दिखाने के लिए जोकि वास्तव में काफी पीड़ादायक भी होता है। लता मंगेश्कर जी को एक बार पूछा गया कि आप दुबारा जिंदगी चाहते हैं? तो उन्होंने कहा कि जरूर, मगर मैं दुबारा लता मंगेशकर नहीं बनना चाहती क्योंकि लता मंगेशकर की तकलीफें सिर्फ मैं ही जानती हूँ।

जब भी हमें तथाकथित या अपने कसोटी पर किन्हीं सफल लोगों को देखते हैं तो हम पर निर्भर करता है कि हम सिर्फ़ आंख का इस्तेमाल करें या दिमाग का भी, क्योंकि रील देखने की गंदी लत ने हमें सोचने देने का समय खींचlलिया है और ये बढ़ भी  रहा है हम इम्पेशेंट होकर सिर्फ़ अपने ज्ञानेंद्रियों पर शिफ्ट होते चले जा रहे हैं और इसी का नतीजा है कि हमें आए दिन यह लगते रहता है कि दुनिया हरी भरी है और हम रेगिस्तान में हैं। यकीन मानिए ऐसा नहीं है। सब अपने अपने जीवन में अपने हिस्से का कीमत चुका कर आगे बढ़ रहे हैं। और उनमें भी जो वास्तविक हैं उनका कुछ ठीक भी पर जो बनावटी हैं उनका तो छोड़ ही दीजिए और विश्वास कीजिए आज के इस सोशल मीडिया प्रदर्शनी में अधिकांश दर्शन बनावटी ही है। ध्यान रखें कि सबसे अधिक मेगा पिक्सल का भी फोटो को झूम करने पर धुंधला या फटा फटा सा दिखता है। Come closer to know well. ज्ञान का प्रकाश ही अंधकार को दूर कर सकता है, जहां अंधकार है वहां दिया जलाएं। आत्म दीपो भवः।

निकलती हुई जिंदगी।

 कभी स्टैंड में खड़ी हुई बस या स्टेशन पर खड़ी रेल के खचाखच भरे डिब्बे में बैठकर या खड़ा होके इस बात का इंतजार तो आप जरूर किए होंगे कि गाड़ी आगे बढ़ेगी वायुमंडल में हलचल  होगी और इस कसमसाती भीड़ में भी हवा आएगी । 

जानते हैं जब गाड़ी खुलती है उसके बाद क्या होता है? गाड़ी खुलने के साथ बहुत सारी चीजें खुलती हैं। पहिए बढ़ते हैं, आप अपने मंजिल की ओर थोड़ा सा आगे बढ़ते हैं। यह निश्चित हो जाता है कि आप स्थिर नहीं रहे है विराम से चलायमान हो गए हैं। कोई पड़ोस की चाची अब इस बात से आश्वस्त नहीं होती हैं कि लड़का यहीं है। उसके कहीं जाने की बात होती है। उसी बस या रेल के पड़ाव पर जब नए यात्री पूछते हैं तो उनको उत्तर मिलता है कि फलाना गाड़ी इतने बजे ही खुल गई फलाना जगह जाने के लिए। गाड़ी खुलने के साथ ही प्रकृति में हलचल हो जाती है न्यूटन का प्रथम नियम यानी जड़त्व से आगे बढ़ते हीं खुद को स्पष्ट करते हैं कि फलाना समय तक हम वहां होंग । उमस भरी भीड़ और ऑक्सीजन के निम्न स्तर के संघर्ष के बीच हम थोड़ा सह लेते हैं थोड़ा खुश हो लेते हैं और नए तस्वीरों के रेल को अपनी आंखों के लेंस से गुजारते हुए उन लम्हों को जीने लगते हैं, उसके जुड़ते जाते हैं, उसी में नवीनता और खुशी खोजने लगते हैं। और कभी कभी उस यात्रा में इस कदर खो जाते हैं अचानक ही कोई आवाज सुनाई पड़ती है कि हमारे उतरने का समय आ चुका है। और जिस उमस से हम शुरुआत में परेशान हो रहे थे, लगता है कि इतनी जल्दी बीत गया। थोड़ा और रहना चहिए था। और जिस तरह हम नई यात्रा के पूर्व विरामावस्था में थे और उमस वाली भीड़ से व्याकुल हो रहे थे वही व्याकुलता उस गाड़ी को छोड़ते वक्त भी आ जाती है। 

कला के तिल


जब कभी आप किसी कला का रसास्वादन कर रहे हों जैसे, यदि आप कोई वाक्य पढ़ रहे हों, कोई गीत सुन रहे हों, कोई चित्र देख रहे हों, अभिनय देख रहे हों, और अचानक से कोई चूक हो जाय और वो आपको दिख जाए तो आप उसपर हंसना नहीं। क्योंकि वर्तमान में किया गया वो प्रदर्शन है, जरा जरा सी हुई चूक उस कला के सजीवता और इंसान की अमशीनीकरण का परिचय दे रहा होगा। हरेक वो कला जो अपने आप में नवीन है वो शत प्रतिशत किसी सांचे की ढाल नहीं हो सकती और ना ही होनी चाहिए। हरेक कला स्वतंत्र होनी चाहिए। 

कलाकार कि एक छोटी सी चूक कला को जो सुंदरता प्रदान करती है ये देखने वाले कि दृष्टि ही दिखा सकती है। जिसे हम और आप संवेदनशीलता कहेंगे। उसके इस कच्चेपन की सजीवता शायद उस पल तो घबरा ही देती होगी और हृदय कुछ ज़्यादा रक्त प्रवाहित कर ही देता होगा । पर उस उसमें जो सुंदरता है वो भी बड़े कमाल की होती है। पर हां इसका यह कदापि अर्थ नहीं कि कला में जानबूझकर कोई कमी छोड़ी जाय ताकि वो सुंदर हो। कुछ हलंत विसर्ग छूट जाएं ये और बात है पर हर बार गलती नई और असामान्य हो और पूरी कलाकृति में एकाध हों तो ही ठीक लगती है। 

पगडंडियां

 मिल जायेगा कारवां अरे ओ रह गुजर  गांव का बरगद और पगडंडियां संभाल रखना  ढलेंगी उम्र तमाम और बनेंगे नवीन दरख्त  लंगोट बांधते वक्त लंगोटिया या...