Sunday, February 6, 2022



वो शैल के आधार थे
मंदाकिनी के किनार थे
सींचे वो जीवन भर जिन्हें
उन पौधों के वो आधार थे

हैं से थे- हो गए
चंद कुछ अंतराल में
बिना बताये चल दिये
छोड़ के मझधार में
क्या कहें कितना बहे
अश्रु ही बस रह गए हैं
कल तो हम पौधे ही थे
आज वृक्ष बना दिए हैं
दिल को दें सांत्वना
या वेदना को स्थान दें
कैसे करें स्थिर पर्वत?
और मंदाकिनी को किनार दें
वक़्त थे जो गुजार दें?
या अश्रु थे जो बिसार दें
कैसे गिनें उन जलकणों को
जिनको वो सम्भाले रखे थे
छोड़ दिया है आपने जो
तो ये न समझें निकल गए हैं
जिद मेरा बदला नहीं है
था जो कल तक मेरे हृदय में
गोद में बैठना हमे है
उंगली वो थामना अभी है
पीठ पर लदना अभी है
और पैर भी दाबना हमें है
ये वक्त था जो जीत गया है
साथ आपका छीन लिया है
छुपा लें हँसकर दर्द को भी
ऐसा कुछ बतला गया है

Tuesday, February 1, 2022

 



कितना खूबसूरत था वो पल!

खट... खट... खट... की आवाज कानों में गयी और आँखों ने अंगड़ाई लिया। खिड़की के ग्रिल पर बैठी वो चिड़िया सीसे पर चोंच मार - मारकर कब मेरे मन को स्वप्न भरे नींद से  चहक और प्रफुल्लता में खिंच लायी पता ही नहीं चला। पहली ही मुलाकात में वो चिड़िया मेरे मन में घर बना ली। 

  जो हमें अच्छा लग जाता है हमारा इंसानी दिमाग  उसका तदनंतर अवलोकन करने से नहीं चुकता। खुद के ऊपर हमारा  असंयम का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। गौर करने लगे। हर कुछ मिनट के बाद, बेवजह ध्यान उसकी ओर खिंचा चला जाता। जब ध्यान जाता तो आँख भरके देखता, फिर कभी शांत छोड़ कर लौट आता और कभी खिड़की खोल कर कोलाहल से उसे छेड़ देता और वो चिड़िया फटाक से फुर्र...

स्वच्छंद जीव को जब खुद आपके बंधन से लगाव होता हुआ दिखे तो आपकी प्रसन्नता बेहद बढ़ जाती है।

छोटी बहन से उसका जिक्र पाया, वो भी बहुत खुश होती थी चिड़िया के आने से। हमारा मन जब प्रसन्नता के गोते से उबरा तो ये दिमाग़ झट से प्रश्न कर बैठा। क्यों आती होगी ये चिड़िया, क्या ढूँढती होगी और क्या पा करके उड़ जाती होगी। 

दोनों ने अंदाज़े लगाया कि - शायद वो खिड़की के छज्जे की छाँव के लिए आती होगी, शायद वो अन्न के दाने तलाशती होगी, शायद उसे प्यास लगी हो, या हो सकता है वो खिड़की में बने अपने प्रतिबिंब को देखने आती होगी।

 मन ने कुछ टटोला और ये उसकी मुश्किलों को आसान करने के प्रयत्न में जुट गया। धान की कुछ बालियाँ ग्रिल से बाँध दिया और भोले बाबा के यहां जल ले जाने वाले मटकी में जल भर कर बाहर रख दिया। छुप कर प्रतीक्षा करने लग गए। उम्मीद से बहुत पहले उसने दस्तक दिया। अनबोली सी वो चिड़िया कब मुँहबोली बन गयी पता न चला। 

हमारे शांत मुख और चंचल आंखें बस उसे निहार रहे थे। कभी धान के दाने खाती, कभी चोंच मारती, कभी उड़ के छज्जे के ऊपर जाती और फिर से आके वहीं बैठती। उसकी क्रीड़ा से भरी क्रियाकलापों को देख देख के बहन मुँह बंद करके ना जाने कितनी बार खिलखिलायी और हम शांत स्वर में मुस्करा रहे थे।और मन ही मन कलम में सियाही डाल रहे थे ताकि आप सबको दृश्य का जिवित विवरण दे सकूं।

 यूँ ही वो खेलती रही और हम बेमन उसे छोड़कर पढ़ाने को निकल गए। लौटे तो देखा कि लगभग आधा धान फोंका जा चुका है पर मटकी ज्यादा खाली न हुई थी। भली छोटी से चिड़िया और उसकी छोटी सी चोंच कितना ही पानी पी पाती...


प्रकृति ने हम सबके लिए अनेक उपहार दिए हैं जिनसे हम अपना मन - मष्तिष्क को प्रफुल्लित कर सकते हैं और उसके उपहारों को सहेज कर उसका आभार व्यक्त कर सकते हैं।

समानान्तर सन्दर्भ से परिकल्पित पंक्तियाँ जो लिखते हुए प्रतिबिम्बित हो उठीं ~

वह चिड़िया जो-चोंच मार कर 

दूध-भरे जुंडी के दाने

रुचि से, रस से खा लेती है

वह छोटी संतोषी चिड़िया

नीले पंखोंवाली मैं हूंँ

मुझे अन्न से बहुत प्यार है।

~ केदारनाथ अग्रवाल

शनिवार: अंक ७

  आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता ...