श्रावण कृष्ण पक्ष तृतीया
१३ जुलाई २०२५
कुछ रातों के कब्जे
हमारे हाथ नहीं होते
ये वो किवाड़ हैं जिनसे
हमारे घर संवरते हैं
कभी वो टूट जाएं तो
ये रातें कांप जाती हैं
दिया फिर मद्धिम न होके
सीधे वो बुझ जाते हैं
रिश्ते भाव होते हैं,
व्यक्ति -वस्तु नहीं होते
अपने औ पराए लोग
हमारे भाव संवारते हैं
तमीज और काबिल दुनिया में
वो बचकानी फितरत नहीं दिखती
वो अब बचपना ढूंढों
जो तुम बचपन में जीते थे
किसी से रूठ जाते थे
तो जल्दी लौट आते थे
हफ्ता, पक्ष लग जाए
तो बाबू क्या बड़े तुम फिर
एहसास गहरे हों जब तो
वो जेहन में नहीं दबते
मगर उन गड्ढों में प्यारे
,मछलियां को भी रख सकते
रिश्ते दर्द नहीं देते
ये तो कुछ भाव होते हैं
ये उनके छाप कुछ कुछ
हैं जो गा बेगाह खटकते हैं
रस्ते चलते कहां हैं वत्स
ये तो बस माध्यम होते हैं
चालक के सहारे ही
ये अपना सपना जीते हैं
कुछ मंजिल नहीं मिलती
तो उसके कारण होते हैं
खास नहीं दिलाते तो
कमसेकम तजुर्बा दे जाते
दोस्त शातिर होते हैं
और ये उनका धर्म होता है
तुम्हें प्रेमिका से भेंट कराने का
उनका कर्तव्य होता है
उनकी शातिरता तब चुभती है
जब वे गद्दारी करते हैं
मगर रुक के सुनो प्यारे
वो भी हमउम्र बच्चे होते हैं
कहते हैं कि माफी से बढ़कर
जहां में और क्या है जी
सितारे अपने हों फिर तो
ये सौ सौ बार काफ़ी है जी
सफर में धूप होती है
पर ये भी हमें गंवार होती है
वही धूप है जो कभी रस्ते झुलसाती है
कभी कलियों को छू करके
यही सुमन खिलाते हैं
ये धूप ही है जो
कभी तो लू में उड़ती है
कभी नदियों से गुजरे तो
जलवाष्प ढो लेती है
~Kumar Pavan
Marvellous commendation ever I got on this poem~