Sunday, November 14, 2021

बाल दिवस : अंकुरों के मिट्टी और मौसम

 


बच्चे : भविष्य के नौनिहाल


इन्साफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के यह देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के। 
कहते हैं कि आपका भविष्य कैसा होगा ये आपके वर्तमान पर निर्भर करता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं इसका कुछ न कुछ परिणाम होगा जिसका एहसास आपको देर - सवेर हो ही जाएगा।
शिशु जब जन्म लेता है तो माँ कि आंचल ही उसकी दुनिया होती है। धीरे - धीरे वो हर उस चीज़ की नवीनता को महसूस करता है जो उसकी माँ के सहारे उसके संपर्क में आता है। बार बार के संपर्क से वो चीजों को पहचानने लग जाता है।
चीजें उसके मस्तिष्क में तस्वीर के रूप में संग्रहित होने लग जााते हैं। जैसे- जैसे वो बड़ा होता है उसके हरेक अंगों का क्रमिक विकास होता है। उसमेें सोचने समझने और याद रखने की प्रवृत्तियों का विस्तार होने लगता हैं। नन्हें आंखों से वो अपने सामने आने वाले चीजों को कैद करना शुरू कर देता है। 

किसके सामने रोना है, कब हंसना है, किसके सामने खाना के लिए रोना है, किसके सामने घूमने के लिए रोना है वो समझने लगता है। जिसे वो सबसे करीब पाता है उसे अपना मानने लगता है उसकी गोद में वो खुद को सुरक्षित महसूस करता है। वो अपने परिवेश के अवलोकन से ही बोलना, चलना, इशारा करना इत्यादि क्रियाओं को करना सीख लेता है।

किस तरह से एक बच्चा अपने परिवेश का अवलोकन करता  है उसको एक उदाहरण से समझने का प्रयास करें - मैं यहां दो अबोध बच्चों की बात करूँगा एक बच्चा है जिसके पिताजी JCB का बिजनेस करते हैं यानी ड्राइवर से चलवाते हैं  और जो दूसरा है उसके पिताजी किसान हैं, आप देखेंगे कि पहले का शौक, खिलौना, बातचीत, यहाँ तक कि उसके सपनों में JCB का प्रयोग ज्यादा होगा वहीं दूसरे का शौक, खिलौना, बातचीत और सपनों को देख कर आप किसान से मिलता जुलता व्यक्तित्व की कल्पना अवश्य कर लेंगे।

मेरा यहाँ यह कतई अर्थ नहीं है कि पिता का व्यवसाय ही पुत्र के भविष्य व प्रगति को तय करता है। मेरा तो बस ये मानना है कि जो जिस परिवेश में रहता है उसपर उसके सम-विषम आचरण का आ जाना स्वाभाविक है, प्रकृति की मिसाल है। और उसी परिवेश से निकला हुआ बच्चा अपने बचपन को जीते हुए जब युवावस्था में अपने व्यवसाय का चयन करता है तो उसमे उसके आचरण का विशेष महत्व देखा जा सकता है। अर्थात यह तय करना अनुचित नहीं होगा कि हमारे बच्चे कल के लिए सींचे जा रहे पौधे हैं।

कैसी है सिंचाई

बात अगर स्कूली शिक्षा कि की जाय तो यह कहना सामान्य सी बात है कि हमारा समाज तीन भागों में बंटा हुआ सा दिखाई देता है। ये दृश्य आज नया थोड़े है, आजादी के बाद से ही देखा जाता रहा है। एक वर्ग हैं जिनके बच्चे उच्च दर्जे के प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थि हैं, दूसरा वर्ग हैं जो अपने बच्चों को किसी प्रकार से मध्यम तबके के प्राइवेट स्कूलों में भेजने को विवश हैं और तीसरे वर्ग के अभिभावक अपने बच्चों को निम्न श्रेणी के विद्यालय या बिहार, ऊ. प्र., झारखंड, जैसे राज्यों के सरकारी विद्यालयों में भेज कर अनुपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।

तीनों प्रकार के विद्यालयों कि तुलना की जाय तो पाएंगे कि शिक्षा तो तीनों दे रहे हैं, लगभग - लगभग पाठ्यक्रम भी उभयनिष्ठ ही हैं, तो प्रश्न ये है कि फिर अन्तर कैसी है इनके बीच!
गौर करने पर आप गुणवत्ता और सुविधा के तर्ज़ पर कई अन्तर गिना सकते हैं। चूंकि मैंने संपूर्ण भारतवर्ष का दर्शन नहीं किया है, अपने परिवेश को देखते हुए जहाँ तक मेरा मानना है कि ये तीनों तबके के विद्यालय और हमारे देश की शिक्षा पद्धति इन अंकुरों को एक अच्छा व्यक्तित्व और जीवन दर्शन की शिक्षा देने में सक्षम व समर्थ होते हुए भी इसके विपरित हैं । 

फिर चाहे वो किसी भी स्तर का विद्यालय हो वहाँ से निकलने वाले अधिकांश किशोरों के मन में पहली उत्कंठा यही होती है कि उनके वयस्क होने पर उनकी व्यवसाय क्या होगी?आमदनी कितनी होगी ? जरा आप सोचें कि खाने में आपको सिर्फ और सिर्फ चावल परोसा जाय क्योंकि आपको कार्बोहाइड्रेट की ज्यादा आवश्यकता है तो क्या आप इससे अपने मानवीय शरीर का पूर्ण विकास पा सकते हैं? मैं तो नहीं मानता। कुछ ऐसा ही है आज के अंकूरों का लालन पालन या सिंचाई। तदोत्परांत वे ना तो सुगम व्यवसाय दे पाते हैं खुद को और ना ही एक अच्छा व्यक्तिव के रूप में उभरते हैं , तो अब बात है कि होनहार निकलते कहाँ से हैं!  बस यह मान लीजिए कि घोंसला चाहे कितना भी सघनता से क्यों न बनाया गया हो उसमे मणि होंगे तो वो दिखेंगे ही फिर वो चाहे घिस के बनें या पीस के बनें।

आप खुद आकलन करें कि जितने भी विषयों कि शिक्षा दी जाती हों स्कूलों में उसके व्यावहारिकता पर गौर किया जाता है क्या? उनकी सार्थकता पर गौर किया जाता है क्या? क्या ये समझा जाता है कि आखिर प्रथम कक्षा में ही बच्चों को पर्यावरण, प्रदूषण, जोड़ना, घटाना, नीतिपरक  कहानियाँ, समान्य ज्ञान के तथ्य आदि क्यों परोसा जा रहा? जो समिति बच्चों के पुस्तकों को तैयार करती हैं उनके उद्देश्य को समझने का प्रयास किया है आपने कभी?
अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि उनमे सिर्फ चावल नहीं परोसा गया है, अगर उत्कृष्टता से उसे प्रयोग में लाया जाय तो उनमें बहुत सारे पोषक तत्व मौजूद हैं।
हालांकि सिर्फ पाठ्यपुस्तक की शिक्षा पद्धति से मैं बिल्कुल असंतुष्ट हूँ पर जिस स्थान पर रहकर मैं सोंच पा रहा हूँ कि कम से कम सुदृढ़ करना तो अपने हाथ में है ।

कैसे हैं आज के पौधे व आधुनिकतम पेड़

बच्चे मस्त होते हैं। डर भी है, लगन भी है, प्रेम भी है, सम्मान भी है, आदर्शवाद भी है, सहनशीलता भी है, तपोमय भी है और साहस  भी है। पर सब में सब नहीं। 

क्या सबमें ये गुण निहित होने चाहिए? अब आप कहेंगे चाहिए तो बहुत कुछ कितना सम्भव हो पाता है! क्यों नहीं हो पाता? कौन है जिम्मेदार? मेरी मानें तो कम से कम बच्चों की तो गलती नहीं हैं।
हसते हुए चेहरे, फुदकते ओंठ, चंचल निगाहें और फुर्तीले शरीर - जैसे मानो नवें ग्रह यही हैं (अपार उर्जावान)। बस कमी है तो इस ऊर्जा के सही दिशाबोध में।

 एक पल को सोचें कि अगर विद्युत का संचार बल्ब और टीवी में नहीं होता तो क्या उसका उपयोग नहीं हो पाता? तब भी हो रहा होता। ऊर्जा व्यर्थ थोड़े जाती है, पढ़ा भी होगा आप सबने की ऊर्जा वो मात्रात्मक गुण है जो निरंतर परिवर्तित होते रहता है, संचारित होते रहता है, जिस मशीन के संपर्क में आता है उसके क्षमतानुसार उसमें अपनी उपयोगिता दर्ज करता है। बिल्कुल तारों में दौड़ते विद्युत की तरह जो दीवार पर लगे बल्ब को भी जलाता है और ट्रेन के इंजन से लगकर उसके इंजन को भी दौड़ाता है। अर्थात बच्चे अपने आप में एक ऊर्जा हैं जिनको हम एक दिशा में रोकना चाहते हैं या उनकी मानसिकता को एक ही उपकरण तक सीमित करना चाहते हैं। 

बच्चों से कब किस तरह का बर्ताव होना चाहिए, कब किस चीज़ से उन्हें अवगत कराना चाहिए, कब किस इंसान से परिचित कराना चाहिए, कब कौन सा साधन मुहैया करानी चाहिए - क्या ये सब हर एक अभिभावक के लिए अध्यन का विषय नहीं है? इन्हीं सब की अज्ञानता का नतीज़ा है कि इन ऊर्जाओं को सही दिशा नहीं दिया जा पाता और बच्चे अतिरिक्त मनोरंजन आदि में संलिप्त होते हैं।


...एक शिक्षक, और सर्वेक्षक के रूप में इन बातों को आपके सम्मुख लाना मेरा कर्तव्य है इसलिए किसी प्रकार की तारीफों की कोई जरूरत नहीं, आए दिन इस तरह के लेख अखबार आदि में छपते रहते हैं, आप चाहें तो समझें नहीं तो परिणाम आपके सम्मुख हैं । गिने चुने पाठकों में से दो चार महानुभाव भी अगर मेरे मन को ध्यान से पढ़ा होगा तो सहृदय धन्यवाद और साथ ही बाल दिवस की स्मृति पूर्ण शुभकामनाएं ।



शनिवार: अंक ७

  आतिश का नारा और धार्मिक कट्टरता से परे जब हम किसी धर्म के उसके विज्ञान की चेतना से खुद को जोड़ते हैं तो हमारा जीवन एक ऐसी कला का रुप लेता ...